Apr 30, 2008

CRY OF THE WILD - एक नग्न सत्य.

Every day, animals lose their habitat
And I know that many people care.
But so often, we just look away
And pretend a problem is not there.

They lose their habitat to destruction -
Buildings and homes go up left and right.
People don't think about the animals
That run away with so much fright.

They lose their habitat to pollution -
People throwing trash all over the place;
Pouring chemicals into the waters -
Thinking of only the human race.

A lone wolf howls into the night
And looks down at a land he once knew.
From the mountain, he stares at city streets,
Where once trees and wildflowers grew.



A Great Blue Heron takes to the sky,
Leaving behind a place he knew as home.
This place, a marshland, is disappearing -
Leaving nowhere for him to roam.






A Barred Owl has lost her babies -
Two babies not yet capable of flight.
The tree they lived in was destroyed.
Two voices will never be heard in the night.




A 10-year-old raccoon is deathly ill.
A poisoned fish he unfortunately consumed.
The fish came from a polluted river
Man's carelessness leaves him doomed.






A Leatherback Sea Turtle is strolling
And something catches the reptile's eye.
He then eats what he thinks is a jellyfish,
But it's a plastic bag and he will die.




A Mountain Lion is coldly shot at.
Luckily, the bullet just grazes his skin.
He crossed land he once belonged to.
Now, this land is no place for him.



All these things really do happen,
Although we may not want to admit
We are disrespecting Mother Nature,
And some of us just choose to forget.

Organizations try to make things better
And help restore habitat that animals lost.
But of course, they can't do it alone;
These efforts do come with a cost.

I know that we are far from perfect.
We must do what we have to live.
But if we must alter and take away,
Shouldn't we also try to give?

The Earth is a beautiful place.
It belongs to all creatures great and small,
But it's man's responsibility and duty
To keep it clean and safe for all.
- STACY SMITH

इस सच ने मुझे झकझोर कर रख दिया। उम्मीद है कि यह कविता आप सबको भी कुछ न कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य करेगी।

Mar 12, 2008

आमिर बनाम शाहरुख ,प्रतिभा बनाम सफलता !

मीडिया को खरीदना ही यदि मीडिया प्रबंधन है तो खरीदने मे शाहरुख खान का कोई सानी वैसे भी नहीं है। पत्नी के लिए द्वीप खरीदना हो या फिल्मफेयर के अवार्ड, शाहरुख की खरीददारी का शौक बहुत पुराना है। वैसे बौलीवूड का बादशाह का खिताब हासिल करने के लिए शाहरुख खान ने कितने रूपये खर्च किए ये तो वही बता सकते हैं। शाहरुख खान जैसे लोगों ने अवार्ड कार्यक्रमों को ना सिर्फ़ अश्लील और भद्दा बना दिया है, बल्कि फिल्मफेयर जैसे अवार्डों की विश्वसनीयता भी समाप्त कर दी है। शाहरुख खान चापलूसों से घिरे रहना बहुत पसंद करते हैं और आलोचना उन्हें रत्ती भर पसंद नहीं। यही कारण है कि उन्होंने २००८ के फिल्मफेयर अवार्ड शो मे आलोचकों को जी भर के सांकेतिक गालियाँ दी वो भी सैफ अली खान के साथ मिलकर (वे सैफ अली खान, जिनकी झोली मे करीना के अलावा कोई बड़ी सफलता नहीं है)। शाहरुख खान की फूहड़ सफलताएं उनके सिर चढ़ कर बोल रही हैं और वे ख़ुद को मनमोहन देसाई के कद का समझने लगे हैं।

मीडिया तुलना करता है। परन्तु बिके हुए मीडियाकर्मियों को इस बात का भान नहीं है कि स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए स्वस्थ तुलना का होना आवश्यक है। शाहरुख की तुलना जब आमिर खान से की जाती है तो दुःख होता है, क्योंकि तुलना बराबरी वालों से की जाती है। आमिर खान रचनात्मकता के मामले मे शाहरुख खान से कोसों आगे हैं। "मन" और "मेला" जैसी इक्कादुक्का फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हम पायेंगे कि आमिर खान की हर फ़िल्म ने ना सिर्फ़ नैतिक संदेश दिया है, बल्कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन भी किया है। आमिर खान फ़िल्म इंडस्ट्री मे व्याप्त चमचागिरी से अछूते रहे हैं, और "ब्लैक" जैसी बकवास फ़िल्म का विरोध करने का साहस कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसका मन आमिर की तरह साफ हो। रामदौस द्वारा जब शाहरुख के फिल्मों एवं सार्वजनिक स्थल पर धूम्रपान करने की आदत पर ऊँगली उठायी गयी थी तो शाहरुख ने रचनात्मक स्वतंत्रता का लबादा ओढ़ कर अपना पिंड छुडा लिया था। शाहरुख और रचनात्मकता ! सुन के ही हँसी आती है।

पिछले वर्ष सबसे ज्यादा कमाई करके और सबसे ज्यादा हिट फिल्म देकर अक्षय कुमार प्रथम स्थान पर आ गए हैं, और शाहरुख खान प्रोडक्शन की फ़िल्म " ॐ शांति ॐ" एक निहायत ही फूहड़ किस्म की फ़िल्म थी , शाहरुख अगर यह बात स्वीकार करने का साहस नहीं रखते हैं तो उन्हें आलोचकों को अपशब्द कहने का अधिकार भी नहीं है। शाहरुख खान ने अबतक सिर्फ़ एक इतिहास आधारित किरदार निभाया है, और उसमे भी सम्राट अशोक के व्यक्तित्व का कबाडा कर दिया। रही बात चक दे इंडिया की, तो उसमे भी शाहरुख का अभिनय औसत दर्जे का ही रहा है। किसी को मेरी बात पर शक हो तो वे डिज्नी मोशन पिक्चर्स की खेल आधारित फिल्में उठा कर देख सकते हैं। चक दे जैसी सैंकडों फ़िल्म डिज्नी वाले पहले ही बना चुके हैं।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे नामी अखबार मे पिछले दिनों एक लेख आया था, जिसमे सचिन और शाहरुख की तुलना की गयी थी। ये तो हद है, अब तो मीडिया की इन हरकतों से दुःख नहीं होता बल्कि घिन छूटती है। चलिए मान लें कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया को २४ घंटे चलने के लिए कुछ न कुछ चाहिए पर प्रिंट मीडिया की क्या मजबूरी है? ( मजबूरी ही है या कोई लाभ है ! )

अगर मीडिया सही तुलना करने का साहस उठाये तो ना सिर्फ़ शाहरुख का स्वघोषित एवं स्वप्रायोजित ताज छिन जायेगा बल्कि समाजवादी पार्टी के पोस्टर बॉय अमिताभ की "महानायक" की पदवी भी छिन जायेगी।

Mar 9, 2008

अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों की बढ़ती आबादी से घबराने वालों को चाणक्य की सीख

जनगणना २००१ के अनुसार विभिन्न धर्मों की जनसंख्या इस प्रकार है:
हिंदू-८०.४%
मुस्लिम-१३.४%
ईसाई-२.२ %
सिख-१.९%
बौद्ध-१.१%
जैन-०.४%
अन्य-०.५%

हंगामेबाजी के लिए निम्न आंकडों का सहारा लेना आवश्यक है:
१० सालों में हिन्दुओं की जनसंख्या बढ़ी-२०.३%
मुस्लिमों की-२९.५%
ईसाइयों की-२२.६%
सिक्खों की-१८.२ %
बौद्धों की-२४.५%
जैनों की-२६.०%

उपरोक्त आंकडों को हिंदू संगठन भयानक बता रहे हैं, ये आंकडे जितना उन्हें डरा रहे हैं उससे कहीं ज्यादा वे ये आंकडे दिखा कर "आम" हिन्दुओं को डरा रहे हैं। ये हिन्दुओं के तथाकथित हितैषी संगठन,ना जाने क्यूँ इन निम्न आंकडों को नजर अंदाज कर देते हैं:-
हिन्दुओं की साक्षरता दर ७५.५ % है, वहीं ईसाइयों में यह दर ९०.३ % तथा जैनों में ९५.५% है।
हिन्दुओं का लिंग-अनुपात ९३५ है जो राष्ट्रीय औसत ९४४ से काफी नीचे है। हिन्दुओं से ज्यादा अच्छा लिंग-अनुपात मुस्लिमों(९४०),ईसाइयों(१००९),बौद्धों(९५५) तथा जैनों(९४०) का है।

हिन्दू संगठनों के अधीशों ने हिन्दुओं को ३ से ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह तो दे डाली पर धर्म से पलायन कर जाने वालों को वे कैसे रोकेंगे ? उन्होंने महिला उत्पीडन तथा भ्रूण हत्या को रोकने के लिए आज तक क्या किया है? साक्षरता बढाने के लिए क्या किया है? दलितों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार एवं अत्याचार को रोके बिना वे पलायन कैसे रोकेंगे? मंदिरों और आश्रमों में जमा अफरात धन दौलत पड़े पड़े सड़ न जाए ,इसके लिए क्या किया जा रहा है? कुछ भी नहीं।

"किसी सम्प्रदाय से भयभीत होने का अर्थ है स्वयं के सम्प्रदाय से भरोसा उठ जाना, और जिसका स्वयं के पंथ पर ही विश्वास न हो उसे धर्मावलम्बी कैसे कहा जा सकता है? सम्प्रदाय मार्ग है, लक्ष्य नहीं। इसलिए विचलित होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। जो विचलित है, वह पंथी नहीं। पथ से भटकाव ही विचलन का कारण है। दूसरों से जब भय हो तो आत्मावलोकन करें कि त्रुटि कहाँ हुई है, श्रेष्ठ कोई भी नहीं, त्रुटिमुक्त कोई भी नहीं। नागरिक, श्रेष्ठीवर्ग एवं शासक, धर्म की शरण लें अथवा धम्म की, राज्यहित ही उनका प्रमुख ध्येय होना चाहिए। "- चाणक्य

Feb 23, 2008

कौन हैं महात्मा गाँधी? क्या किया उन्होंने देश के लिए?

३-४ गांधी विरोधी फिल्मे देखकर जब युवा अपने आपको इतिहासविद समझने लगता है, तो वह कुछ इसी तरह के सवाल किया करता है। गांधी को नीचा बताने के लिए सुभाष और भगत के नाम का सहारा लिया जाता है और उनके नामों के सहारे अपना पक्ष सुदृढ़ करने की भरसक कोशिश की जाती है। गांधी को बदनाम करना आसान है, हिन्दुओं को ये बताओ कि गांधी ने पाकिस्तान को इतने रुपये देने के लिए अनशन किया, जनेऊ धारियों को ये बताओ कि गाँधी एक जमादार का काम ख़ुद किया करते थे, और दलित से कहो कि गांधी राजनीति में दलितों के आरक्षण के धुर विरोधी थे। जनता को फुरसत नहीं होती इन सब के पीछे का कारण समझने की। बस एक बार जहाँ एक विराट हस्ती के लिए जन गण मन में घृणा के बीज बो दिए जाएं तो समय समय पर गाँधी के विरोध में अनाप शनाप काल्पनिक बातें लिखकर नफरत के पौधे को सींचते रहो।

दरअसल गांधी एक सॉफ्ट टार्गेट रहे हैं, गोडसे के लिए भी और साईबर युग के युवाओं के लिए भी। गांधी का अपमान करने के लिए कोई खतरा नहीं उठाना पड़ता। ठाकरे के बारे में कोई यदि सच भी बोले तो पिट जाए, और गांधी के बारे में कोई लाख ऊटपटांग गाता फिरे, झूठ फैलाता रहे तो भी वो मजे से खुलेआम घूम सकता है। अपनी जबरन की हेकडी, और व्यर्थ के मद में चूर आजकल का युवा शायद अपने आपको नेताजी सुभाष( जो गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम व्यक्ति थे ),रवींद्रनाथ टैगोर(जिन्होंने गाँधी को महात्मा का दर्जा दिया),भगत सिंह(जिन्होंने बापू को सदैव पितातुल्य आदर दिया) और अन्य सारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी( जिन्होंने सत्य को अपना धर्म और गांधी को अपना मार्गदर्शक जानकर देश को स्वतंत्रता दिलवाई),से भी ज्यादा ज्ञानवान और बुद्धिमान समझते हैं, इसीलिए वे गांधी का अनादर करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।

आसान है, अपने लैपटॉप और कंप्यूटर के सामने बैठकर क्रांतिकारियों की तौहीन करना। वातानुकूलित कमरे में बैठकर स्वतंत्रता संग्राम की खामियां निकालना, कैफे कॉफी डे और बरिस्ता में चुस्कियाँ लेते हुए महान लोगों की खिल्ली उडाना। जिन्होंने पीर पराई और परोपकार का मर्म न समझा हो, उन युवाओं से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है। जिन्हें नैतिक शिक्षा ही ना मिली हो उनकी सोच बीमारू न होगी तो क्या होगी।

खैर जब बीमारी लाइलाज हो जाती है तो दुआ काम आती है, ये दुआ राष्ट्रपिता ने अपने बच्चों के लिए की थी
"सबको सन्मति दे भगवान्"

Feb 22, 2008

पांच त्रियाचरित्र पीड़ितों की आपबीती और बेटों का ब्लौग!

असफलता से सीखते नहीं, कभी न कभी हम सब, अपनी असफलताओं का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ देते हैं। पार्श्व मे काला परदा लगाकर ख़ुद को गोरा दिखाने की चाहत सब मे होती है। दूसरे को दोषी ठहराना कोलिन स्प्रे की तरह है जिससे हम अपना आईना साफ करने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। हर कोई अपनी असफलता की भडास दूसरे पर निकालता है, दोषारोपण प्रकृति का नियम है; नेता विपक्ष पर, अमीर गरीब पर, औरत मर्द पर, पावन पतित पर और सवर्ण दलित पर। अतीत के पन्ने खुलने पर जब कुछ हादसे और असफलताएँ मुंह बाए खड़े हो जाते हैं तो कुछ लोग दोष डाल देते हैं,,, त्रियाचरित्र पर।यहाँ प्रस्तुत है ऐसे ही ५ लोगों की आपबीती जिन्होंने खुद को त्रियाचरित्र-पीड़ित घोषित रखा है। ये वो लोग हैं जो सोचते हैं कि इंसान की असफलता अथवा इंसान के साथ जो भी क्रूर घटित होता है उसके पीछे एक औरत का हाथ होता है।

प्रथम दृश्य:
खाने की छुट्टी मे, क्लास मे बैठा हुआ एक
धीर गंभीर खिड़की से बाहर
बच्चों को खेलता,देखता हुआ एक।
चींटी धप्प खेलते हुए
कोई उसके पास आयी।
गौर से देख चेहरा उसका
चिडिया सी चाह्चाहायी
"एई, तुम्हारे गाल कितने फट गए हैं,
मम्मी चार्मिस नहीं लगाती क्या"
खिलखिलाहट के बीच
अपमान के घूँट पीता हुआ वो,
प्रतिशोध की ज्वाला लिए
ह्रदय मे, जीता हुआ वो।
झट से खडा हुआ और
उसके बालों में अपना हाथ फेरा,
अंगूठों के नाखूनों को उसके चेहरे के सामने लाया

और हौले से दबाया,
चट्ट की जो आवाज़ हुई अब वो खिलखिलाया
" एई, तुम्हारे सिर में कितने जुएँ हैं,
मम्मी मेडिकर नहीं लगाती क्या. "
प्रकृति का ये क्रूर मजाक
उस कन्या के लिए असहनीय था
वो अगले कालखंड तक रोती रही।
घडियाली अश्रुओं से शिक्षक को प्रभावित किया गया,
नन्ही परी की शिकायत पर
बालक को दानव घोषित किया गया.
बाहर घुटने लगाए वो आज भी सोचता है,
बदतमीजी की सजा उसे ही क्यों.

द्वितीय दृश्य :-
कड़ी धूप में घास छीलते हुए
सारी प्राकृतिक यातनाएं सहर्ष झेलते हुए
जब शरीर का सारा तरल सूख चूका था
तो जाने कितने ही, वालंटियर बना कर
जबरन रक्तदान शिविर में झोंक दिए गए
और ऐसे ही कितने मेहनतकश
सपनो के गले
रैंक परेड के दिन घोंट दिए गए.
कारण से सब अनभिज्ञ हैं, निराश परिणाम से
सोचते हैं पर कुछ सूझता नहीं
कहाँ कमी रह गयी
मेहनत में या चाटुकारिता में।
एक वरिष्ठ ने मुंह खोला
कहा तुम सब की कीमत पर
एक कामायनी,कोमलांगी चुन ली गयी हैं.
वे जिन्हें गाहे बगाहे
मैदान पर देख कर
सब आहें भरा करते थे,
जिनकी बंदूक कभी ना चली
क्योंकि उनसे मैगजीन लोड करते ही नहीं बनी,
पर उनका निशाना अचूक था
जिन्हें सूबेदार मेजर के साथ ठिठोली करते देखा गया
वे अब हमारी अंडर-ओफिसर बनेंगी।
निशाने निशाने का अंतर
जिस दिन समझ जाओगे
उनकी रैंक तुम पा जाओगे.
मिटटी से सम्पर्क के अभाव में
जिनकी युनिफोर्म हमेशा साफ रही
परफ्यूम से महकती वे,
पसीने से बिदकती वे,
उनसे तुम्हारी क्या तुलना है गधो
चलो ये लटके मुंह उठाओ
और जा के उन्हें सेल्यूट करो।

तृतीय दृश्य :-
जब परीक्षा के दिन कक्षा में आकर
कोई एक ही टेबल पर जाकर
ठिठक जाएं
और बड़े प्यार से पूछें
"पेपर कैसा आया"
तो कई मन एक साथ कह उठते हैं
"मास्साब, कभी हमसे भी पूछ लिया करो"

चतुर्थ दृश्य :-
साल भर प्रयोगशाला में खडे होकर
फार्मूलों और रासायनिक सूत्रों में उलझकर
कॉपी में खींची लाल लाल लकीरों को देखकर
भी इतनी खिन्नता नहीं होती
जितनी कि तब,जब
अन्तिम दिवस पर कोई मुस्कुराती हुई आये
आखिरी पृष्ठ पर हस्ताक्षर कराके
बगल में खड़ी हो जाए।
टीपे वो आपकी उत्तर पुस्तिका
और डांट आपको ही पिल जाए
वाइवा में आप को
आधे घंटे खडा रख
अभिक्रियाएं पूछी जाएं
और हलवा बनाने की विधि पूछकर
उनकी पीठ थपथपाई जाए।

अन्तिम दृश्य :-
नोटिस बोर्ड पर लटकी
जीभ चिढाती
जब पुनर्मूल्यांकन की पूरी सूची
"नो चेंज" से सजी हो
और एक विशेषाधिकार प्राप्त विशिष्टा के
२४ अंक बढ़ जाएं तो

परिश्रमियों का आत्मविश्वास
क्यों नहीं डगमगायेगा
साक्षरता का स्वप्न धरा रह जायेगा
भक्त भक्तिनी में भेद हो जहाँ
ऐसे विद्या मंदिरों में
कोई सच्चा उपासक भला क्यों जायेगा?

पाँचों को मेरा सुझाव :-

जो भेद देख आँखें ढांप सकें, वे लोग ही आगे बढ़ते हैं
ठहराव उनके लिए है, जो ऐसी कहानियां गढ़ते हैं।
त्रियाचरित्र है सिर फुटव्वल
सत्य है ये कि,
नारी पुरुष पर भारी
अगर जीना है सुकून से
तो बने रहो आभारी।


( आपस की बात : ये पाँचों कथित पीड़ित मेरे मित्र हैं और इन्होने मुझे "बेटियों का ब्लौग" की तर्ज पर "बेटों का ब्लौग" बनाने का सुझाव दिया है जिसमे ये लोग "त्रियाचरित्र-पीड़ितों" और "पुरुष लिंगभेद" की दुःखभरी दास्ताने पोस्ट कर सकें. पर मैंने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया है क्योंकि मुझे अभी और जीना है. मैं इन लोगों की सोच से इतने भय में जी रहा हूँ कि मैं इनसे दोस्ती कायम रखने के विषय पर भी पुनर्विचार करने जा रहा हूँ. )

Feb 3, 2008

डहरिया सर का थप्पड़

नवोदय विद्यालय में हमारे एक संगीत शिक्षक हुआ करते थे श्री रवि शंकर डहरिया। लंबे चौड़े ,सांवले, पान के शौकीन,संगीत के विद्वान डहरिया सर। जब ६ वीं कक्षा में हमारा एडमिशन हुआ तो पहले पहल हम लोग डहरिया सर को देख कर कांप जाते थे। नवोदय विद्यालय समिति में भी उनका काफी रुतबा था। नवोदय प्रार्थनाओं को संगीतबद्ध करने की जिम्मेवारी उन्हें ही दी जाती थी। समिति का सारे देश में कहीं भी आयोजन होता, तो डहरिया सर को कार्यक्रम के सांस्कृतिक पक्ष का उत्तरदायित्व दिया जाता।तबला,हारमोनियम,जलतरंग,जाज़ ड्रम,कांगो,बांगो,पियानो ऐसा कौन सा वाद्य था जिसमे सर को महारत न हासिल हो।लोकगीत,लोकनृत्य से डहरिया सर को विशेष प्रेम था,उन्होने कभी कार्यक्रमों को ग़ैर सांस्कृतिक नहीं होने दिया,। फिल्मी गाने तो नवोदय को कभी छू भी नहीं पाए। उनके सिखाये कितने ही छात्र संभागीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होते रहे। पर हमने कभी सर को घमंड से चलते या खुद का बखान करते नहीं देखा।

अहंकारी तो मैं हो गया था। १५ अगस्त हो या २६ जनवरी,मेरा एक भाषण निश्चित था। बोर्डिंग स्कूल होने के कारण सभी महापुरुषों की पुन्यतिथियाँ,जन्मदिवस,पर्व - त्यौहार हास्टल में ही मनाये जाते थे। जिसमे मंच संचालन की जिम्मेदारी हमेशा मुझपर डाल दी जाती। विज्ञान और गणित को छोड़कर मेरी बाक़ी सभी विषयों में रूचि थी, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा निर्धारित भाषा के कोर्स की पुस्तकें उस समय बहुत हाई फाई हुआ करती थीं। हमारा पुस्तकालय भी शानदार था, इसलिए प्रेमचंद,निराला,बच्चन से परिचय बचपन में ही हो गया था।ऐसे सानिध्य से मेरा साहित्य बोध बाक़ी बच्चों से ज्यादा अच्छा हो गया था, जिसका फायदा मुझे तात्कालिक भाषण, कहानी लेखन,कविता पाठ इत्यादी प्रतियोगिताओं में मिलने लगा(हालांकि मैं दिनों दिन गणित और विज्ञान में फिसड्डी होता चला जा रहा था)। ७वी कक्षा तक आते आते मैं ११वी-१२वी के छात्रों पर भारी पड़ने लगा।अब तो ये हाल हो गया कि यदि किसी प्रतियोगिता का आयोजन हो और मैं अनुपस्थित रहूं तो हिन्दी विभाग मुझे लाने के लिए वरिष्ठ छात्रों को होस्टल भेज देता था। अब मैं डहरिया सर का प्रिय शिष्य हो गया था।

मुझे पता नहीं आजकल किस तरह के बच्चे पैदा हो रहे हैं? आजकल बच्चों को सजा दो तो केस कर दें, या मीडिया वालों को बुला लायें। हमें तो हर तरह की सजा मिली है और हम आजतक जिंदा हैं, अभी कुछ दिन पहले एक बच्चे को मैदान के दस चक्कर लगाने की सजा मिली और वो ६वे चक्कर में ही मर गया।डहरिया सर और स्पोर्ट्स टीचर पासी सर से भी सारा स्कूल खौफ खाता था। हालांकि डहरिया सर ने मुझे कभी सजा नहीं दी।
मुझे याद है कि सर मेरी बड़ी से बड़ी ग़लती पर भी मुझे माफ़ कर देते थे। मुझसे कितने वाद्य यन्त्र टूटे पर उन्होने कभी कुछ नहीं कहा। एक बार तो मैंने उनके बेटे (जो मुझसे एक साल सीनियर था) को ही टेबल मार कर खून निकाल दिया,जब उसने शिकायत की तो सर ने उसी को वापस डांटते हुए कहा कि तेरी ही गलती होगी(वैसे गलती उसी की थी)। ऐसे कितने मौक़े आये, कई तो याद भी नहीं।

१९९७ में स्वतंत्रता की ५०वी सालगिरह के अवसर पर दिल्ली के गालिब ऑडिटोरियम में देशभर के चुने हुए केंद्रीय विद्यालयों द्वारा नाटक प्रस्तुत किये जाने थे। मध्यप्रदेश से दो विद्यालय चुने गए,उज्जैन का केंद्रीय विद्यालय और हमारा नवोदय विद्यालय। हमे एक महीने की ट्रेनिंग देने के लिए मशहूर नाटककार श्री लोकेंद्र त्रिवेदी आये हुए थे। अगले दिन चयन प्रक्रिया चालू होनी थी, पूरे स्कूल में छात्र छात्राएँ तैयारियों में जुटे हुए थे,मैं सो रहा था। अगले दिन सुबह जब हम स्कूल पहुंचे तो सर ने मुझे कहा कि मुझे किसी भी हाल में सेलेक्ट होना ही है। मेरी दिल्ली-विल्ली जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी,क्योंकि कार्यक्रम ऐसे समय पर था कि मेरी रक्षाबंधन की छुट्टियाँ खराब हो जातीं।लंच के बाद सब सभागार की तरफ भागे और मैं होस्टल में सोता रहा, एक घंटे बाद जूनियर छात्रों ने आकर कहा कि आपको शर्मा मैडम(हमारी हिन्दी टीचर) बुला रहीं हैं ,अभी के अभी।मैंने उनसे ये कहलवा दिया कि मैं उन्हें मिला ही नहीं। मैं फिर लंबी तान के सो गया,बाद में दो सीनियर्स आये और मुझे जबरन पकड़ कर ले गए।संगीत कक्ष सभागार में ही था, मंच से एकदम जुडा हुआ।मुझे संगीत कक्ष में ले जाया गया, डहरिया सर सभागार से उठकर अन्दर आये और फिर हमारे बीच कुछ इस तरह का संवाद हुआ:

सर(गुस्से में) - तू कहाँ मर गया था।
मैं- सर मैं सो गया था।
सर(गुस्से में)- बेशर्म, एक लात मारुंगा खींच के, हम लोगों को क्या अपना चपरासी समझ रखा है,तुमसे हम बाद में बाद में निपटेंगे, अभी स्टेज के पीछे जाओ इसके बाद तुम्हारा नंबर है।
मैं(गुस्से से)-सर मैं नहीं जाऊंगा। मुझे नहीं जाना दिल्ली।

थप्पड़ की आवाज

सब सुन्न सपाट(सर बोले जा रहे हैं, मुझे बस एक सीटी सी सुनाई दे रही है)

आवाज़ आनी शुरू हुई-
तू कुछ जानता है ये कितना बड़ा मौका है , जानता है जो बाहर बैठा है वो कौन है, जा के मर साले ,अब मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना, तुम कुछ नहीं कर सकते जिंदगी में।

मेरा दिमाग खराब हो रहा था, सर ने वो थप्पड़ सब के सामने मारा था। ऐसा लग रह था, कि हर देखने वाले की आँख नोच लूँ और डहरिया सर के ऊपर ड्रम पटक दूं।कुछ जलकुकडे मुस्कुरा कर एक दूसरे को देख रहे थे, सहानुभूति भरी आँखें भी मजाक उडाती सी लग रही थी।मैंने अपने आंसूओं को जैसे तैसे रोका और मन में कुछ ठाना।मैं स्टेज पर गया, मैंने स्टेज पर क्या किया मुझे खुद याद नहीं, पर बहुत तालियाँ बज रही थीं। मैं स्टेज से उतरकर होस्टल की तरफ जा रहा था तभी शर्मा मैडम ने दौड़ कर आके मुझे गले लगा लिया और कहा बेटा तुम सिलेक्ट हो गए।मैं वापिस मुड़ा, संगीत कक्ष में पहुँचा और जो मुझ पर हंस रहे थे उनसे कहा" सालों,बहुत दांत-निपोरी सूझ रही थी ना, जाओ सिलेक्ट होके दिखाओ।"उस वक़्त उनके उतरे चेहरे देख कर जो संतुष्टि मिली थी वो मैं बता नहीं सकता।

वो वाकई बहुत बड़ा मौका था, देश भर के लोगों से मिलने का मौका,देशभर की संस्कृति को पास से जानने का मौका,राष्ट्रीय स्तर पर कला के प्रदर्शन का मौका। हमारे विद्यालय ने द्वितीय पुरस्कार हासिल किया।पहला पुरस्कार मिला शिलोंग,मेघालय के नवोदय विद्यालय को। उन से मैंने जाना कि वो लोग कितने अभाव में पढ़ते हैं, उनका विद्यालय बांस से बना था,जिसकी मरम्मत वहाँ के छात्र छात्राएँ खुद करते हैं।
बाद में हम लोगों को गिरीश कर्नाड,अश्विनी मिश्र,कमलेश्वर,वसंत कानिटकर जैसे कथाकारों नाटककारों से मिलने और बात करने का मौका मिला। मुझे ये अवसर डहरिया सर के थप्पड़ की वजह से नसीब हुआ था, पर मैं अभी भी घमंड में चूर था।

वहाँ से लौटकर मैंने संगीत कक्ष में जाना पूरी तरह से बंद कर दिया। डहरिया सर से मैंने फिर कभी ज्यादा बात नहीं की।९ वी में मेरा रुझान खेल की तरफ हो गया, और खेल के मैदान में घुसने के बाद तो संगीत और मंच से नाता टूट ही जाता है। गणित से तो मुझे एलर्जी थी,इसलिए मुझे १०वी कक्षा में कम्पार्टमेंट आ गयी।जैसे तैसे कम्पार्टमेंट पास करने के बाद भी जब मेरे विज्ञान और गणित के कुल अंक ११० नहीं हो पाए तो नियमानुसार मुझे ११वी में कॉमर्स ही मिल सकता था। मुझे विज्ञान चाहिऐ था इसलिए मैंने नवोदय छोडा और एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में जीव विज्ञान लेके पढ़ने लगा। इस स्कूल में आके भाषा का क्षरण हो गया, भाषा पर से पूरी पकड़ चली गयी। अब सब कुछ हिंगलिश हो गया, और संगीत के नाम पर कैरोल्स और इंग्लिश प्रेयर्स ही रह गयीं।

हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं,जब अतीत को देखकर आप मुस्कुराते भी हैं और झेंप भी होती है।अब लगता है कि ऐंठ ही ऐंठ में कितने सुनहरे अवसर खो दिए। नवोदय विद्यालय में पढ़के मैं क्या नहीं सीख सकता था? वैसे प्यार करने वाले शिक्षक अब कहाँ मिलेंगे? जब मिले थे तब कद्र नहीं की। वो क्या था? क्या वो बचपना था? जब आप सोच लेते हैं कि आपने सबकुछ पा लिया उस क्षण से ही आपका पतन प्रारंभ होता है।जब तक आप समझ पाते हैं, तब तक बहुत कुछ खो चुके होते हैं।

खैर,,, अब मैं कोशिश करता हूँ कि मैं घमंडी न बनूँ। एक बार घमंड करके बहुत कुछ खोया है।

अभी दो साल पहले डहरिया सर से मुलाकात हुई। एन सी सी कैम्प में नवोदय की टीम लेकर आये थे। मैंने जाकर उनके पैर छुए तो वो पहचान नहीं पाए, फिर जब उन्होने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा कि "क्या तुम शिशिर उइके के बैच के हो",कितनी ख़ुशी हुई कह नहीं सकता,सोचकर कि चलो मेरा बैच आज भी मेरे नाम से याद रखा जाता है। मैंने उनको सारी बातें कहकर दिल का बोझ हल्का किया।उन्होने भी मुझे स्कूल के हालचाल बताये( जो कि अब खराब हो चुके हैं)। आप लोग भी अपने पुराने शिक्षकों,मित्रों और चाहने वालों से मिलकर दिल का बोझ हल्का करलें। सीखने का कोई मौका न छोडें क्योंकि क्या पता वो मौका दुबारा मिले या न मिले।

Feb 2, 2008

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ।

भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी के बाद अगर सबसे ज्यादा कोई नाम बिका है तो वो है "राम". राम नाम पतंग है। हर राजनीतिक दल की पतंग अलग है। हर राजनीतिक दल अलग तरीके से पेंच लडाता है।

बीजेपी इस पतंगबाजी का सबसे पुराना खिलाडी है, गुजरे वक़्त में उसने माँझे की धार और तेज कर ली है। राम नाम का उपयोग कमाने और डराने में कैसे किया जाता है, ये बीजेपी से ज्यादा बेहतर और कोई राजनीतिक दल नहीं जानता।बाबरी मस्जिद को ढहाए १६ साल हो गए,पर अभी तक राममंदिर नहीं बना।हालांकि बीजेपी नेताओं के घर लक्ष्मी की खासी कृपा हो गयी,बच्चे विदेश पढ़ने चले गए, पूरे देश ने देखा कि बीजेपी को कितना चन्दा मिलता है, पार्टी मीटिंग पांच सितारा होटलों में होने लगी,फीलगुड के विज्ञापन पर अरबों खर्च दिए पर राम मंदिर बनाने को पैसे नहीं जुडे। वैसे गुजरात चुनाव के बाद बीजेपी ने पुराने मुद्दों को भूलकर अपनी एक नयी छवि पेश करने का प्रयास किया है। रामजन्मभूमि को त्यागकर रामसेतु पर ध्यान केन्द्रित किया है।राम मुद्दा भी है, और समाधान भी।बार बार वोट मांगने के लिए मुद्दे का रहना आवश्यक है। राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए अयोध्या का चूल्हा और सेतुसमुद्रम का तवा बहुत जरूरी है।

अब तो बहन जी पीछे नहीं रह गयी हैं। सुना है अमीनाबाद में बहन जी के कार्यकर्ता "सच्ची रामायण" बंटवा रही हैं। मायावती का पेरियार प्रेम देखकर कांग्रेस और बीजेपी अब एक ही मंच पर आ गए हैं, और उन्होने खुलकर मायावती के कृत्य का विरोध करना प्रारंभ कर दिया है। करात को डर लग रहा होगा कि कहीं कांग्रेस और बीजेपी साथ मिलकर तीसरे मोर्चे कि हवा न निकाल दें।बहन जी का विरोध करके कांग्रेस तो एफिडेविट केस से उबरने का प्रयास कर रही है, और बीजेपी इसे सीडी केस के तोड़ की तरह देखने का प्रयास कर रही है। बहन जी गलती भी तो करती हैं, नागनाथ सांपनाथ को एकसाथ ललकारेंगी तो यही तो होगा ना। किसी न किसी का विष तो काम कर ही जाएगा। वैसे अमीनाबाद में "सच्ची रामायण" बांटे जाने से बहन जी की सामाजिक अभियांत्रिकी की असलियत दिख रही है।इससे कहीं उनके प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब में पलीता न लग जाये।

कभी सुना था कि रामराज्य में शेर और बकरी एक ही घाट का पानी पीते थे। इसमे नयी बात कौन सी है,अभी भी पीते हैं,एक ही घाट से पीते हैं पर अलग अलग समय पर।कल कोई कह रहा था कि देशमुख सरकार में रामराज्य है। मैंने पूछा क्यों?तो जवाब मिला कि वहाँ शिवसेना वाले और यूपी,बिहार के लोग एक ही नलके का पानी वापरते हैं. तो आजकल रामराज्य का मतलब ये हो गया है।लोग थोडे में ही खुश रहें यही आज का रामराज्य है।मुम्बई में आयोजित यूपी महोत्सव में भोजपुरी नायिकाओं के ठुमके लगाने से यूपी,बिहार वालों के मन का भय समाप्त हो जाएगा,ऐसा शिवसेना वालों का मानना है। ये शिवसेना की रामराज्य की परिभाषा है।


ये सारी परिभाषाएं महात्मा गाँधी द्वारा कल्पित रामराज्य से कितनी भिन्न हैं।क्या इसमे कहीं भी सबको रोटी,सबको कपडा,सबको मकान वाली सोच है?नहीं है ना। इसमे "सबको" की जगह "हमको" वाला भाव प्रबल है।जनता की प्राथमिक आवश्यकताएं आप मंदिर मस्जिद बनाकर पूरी नहीं कर सकते।

"पेट की भूख को घुटनों से दबा कर बैठा हूँ
ये ना समझो कि सजदे में हूँ।"


राजनीतिक दलों ने सालों तक गांधी और राम को बेचने का काम किया,पर समझने की कोशिश कभी नहीं की।

लिखते लिखते काफी सीरियस बातें लिख गया,ऐसा अक्सर होता नहीं है।मन और माहौल हल्का करने के लिए अब एक चुटकुला सुनाता हूँ:
बचपन के दिन याद आते हैं, जब बाबरी विध्वंस हुआ था तो उसके बाद कारसेवक ट्रेनों में भर भर के मुफ्त यात्राओं का मजा उड़ा रहे थे।हम लोग ट्रेन से नाना नानी के घर जा रहे थे। इलाहाबाद इटारसी पैसेंजर में पिताजी ने एक कारसेवक से पूछ लिया कि ये तुम लोग थैले में क्या ईंटे भरके ला रहे हो ,उसने कहा कि ये ऐसी वैसी ईंटें नहीं,बाबरी मस्जिद की ईंटें हैं।पिताजी ने कौतुहूलवश उससे ईंटें देखने के लिए मांगी,उसके बाद वे जोर से हँसे और खूब देर तक हँसते रहे। वो लाल मिटटी की बनी एकदम ताज़ी ईंटें थीं, उन ईंटों पर अंग्रेजी में "BABRI" लिखा हुआ था, और कटनी स्टेशन पर किसी सिन्धी ने उन कारसेवकों को वो ईंटें २००-२०० रुपये में बेच दी थीं।

Feb 1, 2008

आओ तुम्हे झुग्गी में ले जाऊं !


पिन से लेकर प्लेन तक,औरत की आबरू से लेकर देश की इज्जत तक, भारत में सब बिकाऊ है।भारत को दुनिया का उभरता बिग बाज़ार ऐसे ही नहीं कहते।आजकल इस बाज़ार ने एक नया माल उतारा है "गरीबी"।

५०० एकड़ से भी ज्यादा विस्तृत क्षेत्र में फैला धारावी एशिया के सबसे बडे स्लम (झुग्गी बस्ती) के रुप में जाना जाता है आज भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है।दुनिया भर के पर्यटक यहाँ के रहन सहन का अध्ययन करने आते हैं। धारावी में आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या कभी कभी गोआ कार्निवाल और खजुराहो के मंदिर देखने वालों को भी पार कर जाती है।क्या इसका ये मतलब निकाला जाये कि बीते सालों में विदेशियों की अभिरुचियों में बदलाव आये हैं और अब उन्हें सागरतटों और सेक्स से विरक्ति हो चली है? या फिर वे खुद को ये समझाने आते हैं कि "देखो दुनिया कितनी गरीब है,फटेहाल है,ऊपरवाले का शुक्र है कि हम ऐसे नहीं हैं"। मुझे तो ये भी समझ नहीं आ रहा कि इसे महाराष्ट्र पर्यटन मंत्रालय की उपलब्धि समझा जाए या बेशर्मी।सुना है प्राइवेट टूरिज्म कंपनियों के टूरिस्ट पैकेज में स्लम टूर भी शामिल किया जाने लगा है।

चुनाव के आते ही धारावी के कायाकल्प की बातें सुनाई देती हैं,सौ से लेकर हजार करोड़ तक की बातें होती हैं।अचानक ही सब राजनेता "मी मुम्बईकर" हो जाते हैं।चुनाव के समय विरार-धारावी विरार-धारावी,और चुनाव के बाद जुहू-बांद्रा जुहू-बांद्रा हो जाते हैं। चुनाव जीतते ही धारावी आँखों में दिखाई नहीं पड़ती।सावन का अँधा हरा देखता है,मुम्बई के अंधे बालीवुड की चमक देखते हैं।एक राजनेता कहते हैं "कौन कहता है धारावी गरीब है,४५ अरब रुपये का सालाना व्यापार करता है धारावी।"जी सरकार,आप जैसा कहो मालिक। हम तो सुनने के लिए बैठे हैं,आपको चुनने के लिए बैठे हैं।

वैसे हर विदेशी सैलानी भारत की खिल्ली उडाने के इरादे से धारावी जाता हो, ऐसा भी नहीं है।कुछ लोग वहाँ जाकर अच्छा काम करते हैं।कुछ लोग हर साल वहाँ के स्कूलों के लिए चन्दा इकठ्ठा करके आते हैं।विदेशी एन जी ओ धारावी के कारीगरों की मदद के लिए हमेशा आगे आते रहते हैं।पर देशी राजनेता वहाँ फटकते भी नहीं.कभी कभी तो शक होता है कि असली मुम्बईकर कौन है?

खैर ऋतिक रोशन के घर में मटमैला पानी आने की खबर के बाद से इस समय तक, मुम्बई महानगरपालिका का अमला उनके घर के पानी की पाइपलाइन सुधारने में तत्परता से जुटा हुआ है, क्योंकि हर नागरिक को साफ पीने का पानी दिलाना उनका कर्तव्य है।उधर धारावी में एक जर्मन छात्रों का दल खुद से बनाए हुए सस्ते वाटर फिल्टर बाँट रहे हैं, ताकि वहाँ दूषित पानी से होने वाली बीमारियों पर काबू पाया जा सके।

Jan 31, 2008

सरनेम(उपनाम) की उत्पत्ति और विकास का सिद्धांत

जब देखता हूँ कि आज हर जगह सरनेम का लफडा है, तो कभी कभी सोचता हूँ कि सरनेम की शुरुआत कैसे हुई होगी। ज्यादा दूर न जाके भारत मे सरनेम की उत्पत्ति पर विचार करते हैं।( अब कोई ये न समझे कि भारत सॉफ्ट टार्गेट है, या भारतीय सहिष्णु होते हैं इसलिए मैं भारत की बात कर रहा हूँ।मैं भारत की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं भारत के बाहर कभी गया ही नहीं। और ये बताएं कि सरनेम की उत्पत्ति पर विचार करने के लिए भारत से अच्छा अध्ययन स्थान कोई और हो सकता है। ऐसी "सर्नेमिक विविधता" वाला देश हमे कहाँ मिलेगा बताइए। इसलिए मेरी बात को अन्यथा न लें, और अगर ले रहे हों तो भाड़ मे जाएँ। )

चलिए कोष्टक मे जो भी लिखा है वो सारी कूटनीतिक बात को पीछे छोड़ कर आते हैं मुद्दे पर, और बात करते हैं सरनेम की। मैंने कुछ कथित रुप से विद्वान टाईप बुजुर्गों से इस बारे मे कभी पूछा था। सबने अलग अलग बात बताई। उनकी बकवास का और मेरे विचार मंथन का जो भी लब्बो-लुआब निकल कर आया वो कुछ इस तरह का था :-

पाषाणकाल मे सरनेम का कोई महत्व नहीं रहा होगा। क्योंकि उस काल मे सारे काम लोग मिलजुल कर करते थे।कबीले के नौजवान शिकार करते थे,औरतें कपडे सिलने, खाना पकाने के अलावा कढाई बुनाई की क्लास ज्वाइन करती रही होंगी, और बुजुर्ग प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हुए टिक्के और कबाब का आनंद लेते रहे होंगे या आपस मे मिलकर गपशप किया करते होंगे।हर कोई मांसाहारी था, हर कोई चमार था हर कोई बन्सोड था, इसलिए छुआछुत वाली कोई बात ही नहीं रही होगी।उस समय अगर सरनेम रहे भी होंगे तो शायद ऐसे रहे होंगे-


बीमारी का बहाना बनाकर शिकार पर ना जाने वाले- कामचोर
शिकार पर जाने के लिए हमेशा तैयार- मेहनती
कोई शिकार करके लाये फिर भी न खा पायें- अलाल
शिकार कोई और लाये और ये खा जाएं- शिकारचोर या हरामखोर
पत्ते पहनने वाले- पत्राम्बर
चमड़ा पहनने वाले-चम्राम्बर
पत्ते से पोंछने वाले-पत्रपोंछे
पानी से धोने वाले- पणधुले
सूअर का शिकार करने वाला-सूअरमारे
हाथी का शिकार करने वाला- हाथिमार

कहने का मतलब यह है कि जो जैसा काम करता रहा उसे वैसा ही उपनाम मिलता रहा। अब धीरे धीरे ये उपनाम या सरनेम वंशानुगत होते गए होंगे. इनके वंशानुगत होने में भी मनुष्य के स्वभाव ने ही अहम् भूमिका निभाई होगी.उदाहरण के तौर पर जैसे कबीले के सरदार ने किसी एक हाथी के शिकारी युवक को एक भेड़,पत्थर का भाला और हाथीमार की उपाधि ईनाम में दी होगी,वो अचानक ही "कबाईलीयन ऑफ़ दी ईयर" बन गया होगा और कबीले की सुंदरियों की निगाह में चढ़ गया होगा.ये सब देखकर उसके साथी जल मरे होंगे. रात में मदिरापान के समय किसी जब उसने गर्व से वो भाला अपने साथियों को दिखाया होगा तो किसी ने जलनखोरी में चिढ़कर उसे कह दिया होगा कि "चल बे, ये भाला हमें न दिखा, हमें तेरे पूरे खानदान का पता है, तेरा परदादा मुर्गिमार था,तेरा दादा सूअरमार था,तेरा बाप भी सूअरमार था. तू चाहे कितने भी हाथी मार ले, रहेगा तो तू सूअर मार की औलाद ही ना।" बस ऎसी ही कुछ घटनाओं से सरनेम वंशानुगत हो गए होंगे,कुछ जलनखोरों ने मिलकर पूरा इतिहास बदल दिया होगा।

अब हरित क्रांति का दौर आया,रोजगार बढ़ गए और साथ ही कामों की विविधता भी बढ़ गयी।कोई बेरोजगार न रह गया। कबीले अब गाँव बन गए होंगे। अब गाँव का नाम भी लोगों की पहचान बन गया होगा. नाम,बाप का नाम के साथ एक और सवाल जुड़ गया होगा गाँव का नाम. लोग हर अनजाने से पूछते होंगे "कौन हो भाई,कौन गाँव से आये हो?"अब हर कोई तो इतना सहनशील नहीं होता कि बार बार नाम बताये फिर गाँव का नाम बताये. तो कुछ लोगों का दिमाग खराब हुआ और उन लोगों ने अपने गाँव के नाम अपने सरनेम बना लिए. साहिर लुधियानवी और हसरत जयपुरी उन्हीं में से रहे होंगे. अब नाम पते की चिकल्लस ख़त्म हो गयी।

हरित क्रांति के बाद गाँवों का आर्थिक विकास हुआ,जो काम धंधा करते रहे वो कभी गाँव के तो कभी काम के नाम से पहचाने जाते रहे होंगे।समाज दो वर्गों में बाँट गया होगा; मेहनत करके खाने कमाने वाले और बैठ कर रोटियाँ तोड़ने वाले. खाने को बहुत था इसलिए एक वर्ग मेहनत करना ही नहीं चाहता था.अब एक बड़ी दुविधा उत्पन्न हो गयी थी. मेहनत करने वाले तो अपने काम के नाम से पहचाने जाते थे पर निठल्लों का क्या उपनाम हो? ये एक बड़ी परेशानी का सबब बन गया. पंचायत बैठी, किसी ने सुझाया कि इन निठल्लों को इनके बाप का नाम दो. पर किसी ने आपत्ति जताते हुए कहा कि उनका क्या जिनके पिता ने उन्हें निठल्लेपन के कारण अपनी संतान मानने से इनकार कर दिया है?बड़ी समस्या थी. सरपंच ने फैसला सुनाया कि या तो ये निठल्ले कोई काम अपना लें या फिर गाँव छोड़कर चले जाएं।
निठल्लों को दूसरा रास्ता अच्छा लगा. वे गाँव से निकल कर जंगलों में चले गए और शिकार करना तो आता नहीं था इसलिए कंदमूल खाकर अपना जीवयापन करने लगे। कोई दोहा गढ़ता तो कोई चौपाईयाँ सुनाता।उनका एक ही मंत्र था
"अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम
जंगल में कंदमूल भरा पड़ा है,खाओ सुबह शाम"

कुछ निठल्लों सोचना शुरू किया क्योंकि उनके पास समय बहुत था।कुछ ने जमीन पर लकीरें खींचना शुरू किया,इन निठल्लों ने भाषा,गणित और पता नहीं क्या क्या फालतू चीजों की खोज की. अपनी सोच को इन्होने पत्तों में लिखना शुरू किया,और अपने बच्चों को सिखाने लगे। निठल्लों ने खाली समय में हस्तलिखित पत्तों के भण्डार जमा कर लिए जिन्हें वो पोथी कहने लगे। निठल्लों के सरनेम अब पोथी निर्दिष्ट हो गए थे।

उदाहरण- एक पोथी रटने वाला-पोथी
दो पोथी रटने वाला-द्विपोथी
तीन पोथी रटने वाला-त्रिपोथी
चार पोथी रटने वाला-चतुर्पोथी
जो पोथी न रट पाए, वे अपने बाप का नाम उपनाम की जगह लगाते गए होंगे।


खैर, बाहर की दुनिया बदल रही थी,गाँव अब शहर बन चुके होंगे और सामंतवाद चरम पर पहुँच गया होगा. पंचायती राज ख़त्म हो गया था और प्रशासन केंद्रीकृत होकर एक व्यक्ति के हाथ में चला गया था जिसे राजा कहते थे। लोगों के पास अफरात माल जमा हो गया था पर दिन भर मेहनत करते रहने के कारण मन की शांति नहीं रही होगी. चारों तरफ अशांति का बोलबाला हो गया. राज दरबार में भी अशांति थी, क्योंकि ऊटपटांग खाते रहने के कारण रानियों को अपच की बीमारी हो गयी थी. राजमहल भी महामारियों का जन्मस्थान बन गया होगा।
इधर निठल्लों का भी भोजन समाप्ति की कगार पर होगा, क्योंकि उनकी जनसंख्या काफी बढ़ चुकी थी।ऐसे में किसी निठल्ले ने सुझाया कि चलो अब जंगल से बाहर चलते हैं भिक्षा मांग कर अपना जीवन यापन करेंगे. निठल्ले ना सिर्फ बाहर निकले बल्कि उन्होने राजदरबारों में अपनी धाक भी जमा ली. पर ये सब हुआ कैसे होगा? शायद ये कुछ इस तरह हुआ होगा:



निठल्ले बाहर आये तो उन्होने देखा की चारों ओर अफरातफरी का माहौल है। ये देख कर निठल्लों के कलेजे में ठंड पड़ गयी होगी,कुछ दौड़ते सैनिको को देखकर एक निठल्ले ने पूछा कि "भाई क्या हुआ? कहाँ भागे जा रहे हो?"बदहवास सैनिक ने कहा कि महाराजाधिराज की पटरानी को जबरदस्त लूज़मोशन हो रहे हैं, हम ऐसे व्यक्ति को ढूँढ रहे हैं जो उन्हें इससे निजात दिला सके. उस व्यक्ति को राजमहल का विशेष अतिथि बनाकर ताउम्र रखा जायेगा।" अंधे के हाथ जैसे लग गयी बटेर,निठल्लों को जंगल में रहते रहते औषधियों का थोडा बहुत ज्ञान तो हो ही गया था, उन्होने फौरन जाकर रानी को वो औषधि दी होगी और रानी के ठीक होते ही उनकी महल में धाक जम गयी होगी। कुछ समय बाद तो वे राजा के आधिकारिक "साले" की तरह व्यवहार करने लगे होंगे. कुछ समय बाद राजा राजकाज में भी उनकी सलाह लेने लगा होगा। अब तो निठल्लों की हो गयी ऐश. सैय्याँ भये कोतवाल अब डर काहे का।

निठल्ले जानते थे कि यदि उन्होने अपना ज्ञान बांटा तो उनकी पूछ ख़त्म हो जायेगी,और वे मेहनतियों के द्वारा की गयी बेइज्जती और गाँवनिकाला के बाद की पीडा को भूले नहीं थे। इसलिए उन्होने ठान लिया कि उनका ज्ञान किसी को नहीं मिलेगा।
अब समाज चार वर्गों में बाँट गया था:
सबसे ऊपर का वर्ग था निठल्लों का
फिर निठल्लों के रक्षक जिसमे राजा और सैनिक शामिल थे.
फिर निठल्लों के अधीन व्यापारी,सप्लायर्स।
और अन्तिम वर्ग था मेहनतियों का।

तब से लेकर आजतक सरनेम ज्यों के त्यों हैं। पर सरनेम अब वंशानुगत रह गए हों ये पूरी तरह से सच भी नहीं है। सरनेम की वंशावली को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं:

(१) डर - डर सबको लगता है,फूलनदेवी के डर से चम्बल के कितने ठाकुरों ने सरनेम बदल लिए। ठाकुरों के डर से कितनी फूलनदेवीयों ने अपने सरनेम बदल लिए.

(२) दंगे फसाद - दंगे फसादों में अच्छे अच्छों के सरनेम बदल जाते हैं,दंगे फसादों में सरनेम बदलकर लोग आपसी प्रेम का प्रदर्शन करते हैं।

(3) क्रांतियाँ - जब समुद्र की तलहटी में ज्वालामुखी फटता है, तो समुद्र तल के पानी का भी रंग बदल जाता है।

(४)स्वार्थ - कई लोग स्वार्थ में सरनेम बदल लेते हैं।उदाहरण के तौर पर- नौकरी लगने तक गोंड थे,नौकरी लगने के बाद गौड़ हुए और राजनीति में आने मिला तो गौर हो गए.कुछ लोग फर्जी जाती प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सरनेम बदल लेते हैं।

(५)आत्मविश्वास की कमी - इस कारण से सरनेम बदलने के तो लाखों उदाहरण मिलते हैं, लोग तो अपने सहकर्मी, सहपाठियों से भी असली सरनेम छुपा जाते हैं।

(६)लालच - कई बार जब दूसरे व्यक्ति से काम निकलवाना होता है, तब हम उसका सरनेम परिवर्तित करके उसे बराबरी का एहसास दिलाते हैं।उदाहरण - मध्यप्रदेश में जूते सिलवाते वक़्त चर्मकार को "चौधरी जी" कहकर संबोधित किया जाता है. खेतिहर मजदूर आदिवासियों को खेत में काम करवाते वक़्त "ठाकुर साहब" कहने का भी प्रचलन यहाँ पर है. ये अलग बात है कि जब पैसा देने की बारी आती है, तो "ठाकुर साहब" और "चौधरी जी" को उनके असली उपनामों से पुकारकर उनकी असली औकात भी याद दिला दी जाती है।( ये मध्यप्रदेश का ट्रेड सीक्रेट है)

सरनेम में पदोन्नति या सर्नेम्मोनती जैसा कोई प्रावधान नहीं है। "सरनेम सुधार आन्दोलन" जैसा कोई आन्दोलन भी अभी तक अस्तित्व नहीं ले सका है, ये शायद इसलिए, क्योंकि एक का "सरनेम सुधार आन्दोलन" दूसरे को "सरनेम बिगाड़ आन्दोलन" प्रतीत हो सकता है।हालांकि बीच में कुछ हड़ताली डॉक्टरों ने सुझाव दिया था कि सबका सरनेम एक कर दिया जाए। आजकल के डॉक्टरों से ऐसे ही बेवकूफाना सुझावों की उम्मीद रहती है। अरे,,, "सबका मालिक एक" नहीं हो पाया अब तक, सबका सरनेम कहाँ से एक हो जायेगा।

Jan 30, 2008

कौन कहता है कि भारतीय नस्लवादी नहीं होते?

सबसे पहले तो आजादी के ५० साल बाद नस्लवाद शब्द को भारत मे प्रसिद्ध करने के लिए सायमंड्स और हरभजन का कोटि कोटि धन्यवाद। सायमंड्स हरभजन पर आरोप लगा कर उसे मनमाफिक सजा तो ना दिलवा पाए , पर एक बढिया काम जरूर किया है कि आम भारतीय को आईने मे झाँककर ये पूछने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम नस्लवादी हैं?

मैंने आईने से तो नहीं पर एक मित्र से पूछा कि क्या हम नस्लवादी हैं??उसने कहा "चल बे, सायमंड्स अपन से ज्यादा गोरा है यही नहीं वो तो फिरोज खान के बच्चों और बाराबंकी महिला महाविद्यालय की मालकिन से भी ज्यादा गोरा है, हम उसपे क्या ख़ाक टिपण्णी करेंगे ।"पर सवाल तो ये उठता है कि क्या एक काला आदमी एक अपेक्षाकृत गोरे व्यक्ति पर टिपण्णी नहीं कर सकता? मुझे तो लगता है कि कर सकता है। काले लोगों का ग्रुप बनाओ और रोज एक गोरे आदमी को पकड़ कर खूब चिढाओ, आप उससे उसके रंग का कारण पूछो, उसके खानदान तक पहुंच जाओ। न सातवे दिन वो पुलिस मे रिपोर्ट कर दे तो नाम बदल देना।

भारत मे सदियों से गोरे रंग को स्टेटस सिम्बल माना जाता रहा, आर्य द्रविड़ का खेल तो सबको याद ही होगा।हजारों साल तक ये नाटक चलता रहा।पर परेशानी तो तब हो गयी जब २०० साल पहले हमसे भी ज्यादा गोरे लोगों ने इस धरती पर कदम रखा।जब हमने उनका गौरवर्ण और कदकाठी देखी तो हम चकित रह गए। वो बिल्कुल वैसे ही थे जैसा कि धर्मग्रंथों मे लिखा था, यही नहीं हमारे कुछ बेवकूफ पूर्वज तो २०० साल तक उन्हें देवता समझ कर उनके आदेश बजाते रहे। रात दिन चेहरे पर फेयर ऎंड लवली मलने वाले, गोरी लड़कियों के ख्वाब देखने वाले, सांवली को मुँह पर रिजेक्ट करने वाले, हम लोग नस्लभेदी कैसे हो सकते हैं? हाँ रंगभेदी कहो तो बात अलग है।

भारत मे तो लोग बस प्यार करना जानते हैं, और प्यार दिखाने में हम लोग कभी झिझकते नहीं,हमारा प्यार कुछ कुछ साल बाद अचानक बहुत ज्यादा उमड़ता है ।और इतना उमड़ता है कि दिल्ली से भागलपुर तक,गुवाहाटी से गोधरा तक लोग उस प्यार को महसूस कर पाते हैं। अब हमारे शहर को ही लीजिये, हमारे शहर में पूर्वोत्तर राज्यों से कुछ लोग आते हैं कभी पढ़ने तो कभी कुछ काम करने।अब भाई उनके लिए जाने अनजाने किसी किसी के मुँह से नेपाली या चीनी निकल जाता है।कुछ दक्षिण भारतीय लोग फैक्टरियों में नौकरी करने के लिए आते हैं तो लोग उन्हें प्यार से करिया,कलूटा,कलवा,कल्बिलवा,कालू कह देते हैं। अब भारत के लोग हैं, तो ये सारे नाम प्यार से ही देते होंगे ना।अब अगर इससे भी कोई नाराज हो जाये, तो वो जाने उसका काम जाने।
अच्छा ये बताओ कि पंजाबियों का दिमाग घुटने में होता है, मराठी कंजूस होते हैं, बंगाली डरपोक होते हैं,बिहारी गुंडे होते हैं,कश्मीरी आतंकवादी होते हैं। ये सब क्या है? अरे पगले इंसान ये तो क्षेत्रवाद है,अजीब पागल हो यार!हर चीज को नस्लवाद बोलते हो!

भारतीय आपस मे ही इतना प्यार करते हैं कि क्या बताएं। कुएँ से पानी भर लेने पर जहाँ नीची जाति वालों की औरतों बेटियों का सामुहिक बलात्कार कर दिया जाता है, मंदिर मे प्रवेश करने जहाँ गाँव के गाँव जला दिए जाते हैं उस देश को आप जातिवादी कहलो भाई पर आप तो नस्लवादी का तमगा दे रहे हो वो तो सरासर गलत है।

हमारे देश मे लड़कियों को दहेज़ के लिए जिंदा जलाया जाता है, कितनों का बलात्कार तो जान पहचान वाले और रिश्तेदार ही कर डालते हैं, लड़की को या तो गर्भ मे मार दिया जाता है और अगर कहीं धोखे से पैदा हो गयी तो कुत्तों को खिलाने के लिए झाडी मे फेंक देते हैं। हाँ तो मान रहे हैं ना, कि ये सब होता है। हमने इस बात को मानने से कभी इनकार किया क्या?हम तो सीना ठोंक कर कहते हैं कि हाँ हम लिंगभेदी हैं ,कम से कम दूसरों की तरह नस्लभेदी तो नहीं हैं।

सायमंड्स मुझसे कह रहे थे कि उन्हें बिग मंकी कहलाना पसंद नहीं। मैनें उनसे कहा कि बंधू आप तो इतने मे ही गुस्सा हो गए, डार्विन को तो पोप ने बन्दर घोषित कर दिया था। हरभजन ने आपको बड़ा बन्दर कहा था तो आप उसे छोटा बन्दर कह देते, उच्छल कूद तो वो भी मचाता है । सायमंड्स बोले कि हाँ मैं तो यही बोलना चाहता था, पर पोंटिंग ने कहा कि "साले अपनी तो भद्द पिटवाओगे और साथ मे मेरी भी,तुम तो हो ही वेस्टइंडीज की पैदाईश और वो इंडिया का, तुम दोनो तो बन्दर ही हो, पर कल तुम्हारे चक्कर मे मुझे कोई मंझला बन्दर बोलने लगा तो?" इस कारण मुझे शिक़ायत करनी पड़ी। खैर मैंने सायमंड्स को समझा दिया है कि भारतीय रंगभेदी हो सकते हैं,क्षेत्रवादी हो सकते हैं , जातिवादी हो सकते हैं, लिंगभेदी हो सकते हैं पर नस्लभेदी,,,,कभी नहीं।

ऐसा जवाब दिया सायमंड्स को कि वो मुझे देखता ही रह गया।फिर उठा और फिर, ऐसा कुछ बोला "ब्लडी रेसिस्ट इंडियन",मुझे पता था कि वो मेरी तारीफ करके गया है,मेरा सीना गर्व से फूल कर हेडन जैसा हो गया।पढ़ने वालों से अनुरोध है कि नयी बनियान जरूर ले लें।

Jan 28, 2008

भारतीय शिक्षा - उद्यम या उद्योग

विचार का दीपक बुझ जाने पर चरित्र अँधा हो जाता है। अच्छी शिक्षा मनुष्य मे अच्छे विचार पैदा करती है। शिक्षा का ध्येय ही चरित्र निर्माण होता है।मनुष्य की आंतरिक सुन्दरता को सिर्फ और सिर्फ अच्छी शिक्षा से उजागर किया जा सकता है।अच्छी शिक्षा व्यवस्था किसी भी राष्ट्र के विकास की रीढ़ होती है। संसाधनों की उपलब्धता,प्रतिव्यक्ति आय या रहन सहन से किसी भी राष्ट्र के विकास का मापन संभव नहीं है जब तक कि इसमे चिकित्सा और शिक्षा जैसे मूलभूत तत्वों को शामिल न किया जाये।

"भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान की धरती माना जाता रहा है। नालंदा और तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों मे विश्व भर के प्रबुद्ध छात्र अपने ज्ञान को निखारने के लिए आते रहे।भारत ने विश्व को समय समय पर चोटी के विद्वान् दिए।"ये सब अब पुरानी बातें हो गयी हैं। ये " दिल को बहलाने के लिए ख़याल अच्छा है गालिब" वाली बातें हैं।भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से बीमारू हालत मे है,और यही सच है। भले ही ये कितना ही कड़वा क्यों न हो। कब तक मैं और आप चरक,चाणक्य,आर्यभट्ट का नाम गा गाकर खुद को बेवकूफ बनाते रहेंगे। सच्चाई हम सब जानते हैं, ये अलग बात है कि हम आत्मसंतुष्टि के लिए आँखें मूँद कर पूर्वजों के ज्ञान का गुणगान करते रहते हैं और भविष्य की पीढ़ी के साथ हो रहे खिलवाड़ से अनजान बने रहते हैं।

"रटंत ज्ञान" की परम्परा तो हमारे देश मे सदियों से रही है। यही सदियों तक "पांडित्य" या "विद्वत्ता" की परिभाषा बनी रही। ये तब तक तो ठीक था जब तक हम घर से बाहर नहीं निकलते थे, श्लोकों सूक्तियों को रटकर फूले नहीं समाते थे , और उथले ज्ञान मे गौरव महसूस करते रहे। पर आज हमारी प्रतियोगिता सारे विश्व से है, और ज्ञानवान होने की ग़लतफ़हमी हमे भारी पड़ सकती है।

भारत मे सरकारों ने भी शिक्षा को हमेशा नजरअंदाज किया है।तमाम लंबे चौड़े दावों के बावजूद न तो इसे सर्वसुलभ बना पाए हैं और न ही इसे मानवीय स्पर्श दे पाए हैं।पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के ४२ हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। जब बैठने तक के लिए भवन नहीं हैं तो सीखने-सिखाने के अन्य उपकरणों और शेष शैक्षिक प्रक्रियाओं की बात करना ही बेमानी है।अमेरिका मे कुल बजट का १९.९ %, जापान मे १९.६%, इंग्लैंड मे १३.९% शिक्षा पर खर्च किया जाता है। अफसोसजनक है कि भारत मे शिक्षा पर बजट का मात्र ६ प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है, और खुद को भविष्य की महाशक्ति कहा जाता है।

राज्य सरकारों के पास तो शिक्षकों को वेतन देने तक के लिए पैसा नहीं निकलता, ये दीगर बात है की फीलगुड जैसे राजनीतिक प्रचारों मे अरबों रुपयों का जो चूना लगता है वो भारत के आम नागरिक की जेब से ही जाता है। शिक्षकों से पढाने के अलावा बाक़ी सभी काम लिए जाते हैं, फिर वो चुनाव ड्यूटी हो या पल्स पोलियो।शिक्षक को शिक्षाकर्मी, गुरुजी और शिक्षामित्र बना कर राज्य सरकारों ने, शिक्षकों के लिए जनता के मन मे जो रहा सहा आदर भाव था वो भी ख़त्म कर दिया। हर राज्य से इन ठेके के शिक्षकों के पिटने की खबर आती रहती हैं।

मध्यान्ह भोजन के नाम पर भी लोग धांधली करने से नहीं हिचकते। देहातों मे मध्यान्ह भोजन मे कीडे मकोडे मिलना तो आम बात हैं, किसी किसी राज्य मे तो जैसे मध्यान्ह भोजन योजना सड़े गले अनाज के निपटारण का तरीका बन गया हो।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत मे स्कूल जाने वालों मे ४० % बच्चे अंडरवेट होते हैं, और ४२% कुपोषण के शिकार। ये आंकडे मध्यान्ह भोजन और आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं की पोल खोने के लिए काफी हैं।

भारत में उच्च शिक्षा की हालत भी कोई ख़ास नहीं है।भारत में ९२७८ महाविद्यालय और २६० विश्वविद्यालय हैं। पर अभी भी हम उच्च शिक्षा के वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में अक्षम हैं।विश्वविद्यालयों में निर्रुद्देश्य हड़ताल,कक्षाओं का बहिष्कार, शिक्षकों से दुर्व्यवहार और छात्राओं से छेड़खानी की घटनाओं ने भारतीय उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण के कारण बढ़ती अनुशासनहीनता का स्याह रूप दिखाया है। आधे से ज्यादा विश्वविद्यालय आर्थिक बदहाली से जूझ रहे हैं।विज्ञान और तकनीकी महाविद्यालयों में प्रायोगिक शिक्षा और शोध के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है।

मीडिया और सरकार दोनों आईआईटी और आईआईएम् की चकाचौंध से इतने अंधे हो गए हैं कि उनका इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं जाता कि क्यों देश के ६३% बच्चे १०वी कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं, या इस बात पर कि जो शिक्षक स्कूली स्तर पर पढा रहे हैं वे उस लायक हैं भी या नहीं। आपकी नींव ही कमजोर है और आप एक उच्चवर्गीय सतही शिक्षा के विकास का ढोल पीट रहे हों तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।

प्रतियोगी परीक्षाओं में पास कराने के नाम पर कोचिंग संस्थान अपना धंधा जिस तरह फैला रहे हैं उससे तो यही लगता है कि कुछ समय बाद इस देश में कोचिंग सेंटरों की संख्या स्कूलों और कॉलेजों से भी ज्यादा हो जायेगी।

ये जो थोक के भाव प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं उनकी भी सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गयी है।यहाँ किसी मानक का ध्यान नहीं रखा जाता। PET और PMT में जो छात्र पास नहीं हो पाते वे यहाँ मोटी फीस चूका कर भविष्य के डॉक्टर और इंजिनियर बनते हैं। कई प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के पास तो खुद की लैब भी नहीं होती।अब ऐसे कोलेजों के कारण जो झोलाछाप डॉक्टर और कबाडी इंजीनियरों की पैदावार बढ़ी है ,उसमे कोई आश्चर्य नहीं।

अचरज की बात तो ये है कि जब आरक्षण की बात आती है तो प्रतिभा का राग अलापकर देशभर में विरोध किया जाता है और पूरा देश गरीब आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रतिभा पर अचानक ही शक करने लगता है, पर इन प्राइवेट कॉलेजों से निकलने वाली "तथाकथित प्रतिभाओं" पर किसी को लेशमात्र भी एतराज नहीं होता। अब इसका कारण जो भी हो,पर यह बात सोचने पर मजबूर करती है।



जहाँ भारत की अर्थव्यवस्था विद्या का पलायन रोकने में अक्षम है, वहीं भारत की शिक्षा रोजगार दिलाने में। ऐसे में ये भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि शिक्षा के क्षेत्र के ऊपर ज्यादा ध्यान दिया जाए, सीधे शब्दों में कहूँ तो ज्यादा आर्थिक ध्यान दिया जाए।राज्य सरकार भी अपना उत्तरदायित्व समझें और शिक्षकों को शिक्षक ही रहने दें, शिक्षा मजदूर (शिक्षाकर्मी) न बनाएं।

चीनी विद्वान कंफ्युशिअस ने १००० साल पहले एक बात कही थी कि " अगर तुम १ साल आगे का सोचते हो तो चावल बोना शुरू करो, १० साल बाद के लिए सोचते हो तो पेड़ लगाओ,,अगर तुम्हारी सोच १०० साल आगे की है तो बेहतर होगा कि लोगों को शिक्षित करो।" मैं आशा करता हूँ कि ये बात सब के कानो तक पहुँचेगी और दिमाग तक भी ।

Jan 23, 2008

एक मोहल्ले की कहानी

१४-१५ साल पहले ईंटों का जो जमावड़ा लगा था, वो आदमकद "बाउंड्रीवाल" बन चुका है। कंक्रीट के जंगलों ने जो मैदान खा लिए थे ,अब बहुमंजिला की छत पर कभी कभी दिखाई देते हैं। बाउंड्री है,ताकि पडोसी घर की कलह देख न सकें, ताकि बच्चों के प्रतिशत कम न हों, ताकि नयी गाड़ी पर नज़र न लगे,ताकि बाहर खेलते बच्चों की गेंद घर में न घुस सके। कहीं घर से ऊंची बाउंड्री है, कहीं बाउंड्री में ही घर है। बाउंड्री और गेट से हैसियत का अंदाजा लगाया जाने लगा है, इतनी ऊँचाई रखी जाती है ताकि आने वाले को ओछेपन का एहसास कराया जा सके और मन मे खौफ पैदा हो । दीवारों से मन नहीं भरा तो ऊपर नुकीले भाले लगा दिए।भीतर का आदमी कूपमंडूकता मे गर्व महसूस करने लगा है।

खेलने कूदने की जगह तो पहले ही खप गयी थी, गिरने पड़ने की जगह भी छिन गयी,बचपन बिना चोटों के गुजरता है,घर आने पर मार भी नहीं पड़ती। रंग बिरंगी बैंडेज खरीदने का इकलौता बहाना भी छिन गया।
अंग्रेजी मे जैसे सारे बच्चों को बिना किसी भेदभाव के चाइल्ड कहते हैं, पहले मोहल्ले के बच्चे भी चाइल्ड ही होते थे। लड़के लड़की साथ मिलकर गेंद-पिट्टू ,लुका-छिपी, भौंरा-लट्टू खेलते थे, थोडा बडे होने पर अन्ताक्षरी के दौर चलते थे। अब बच्चे बडे ही पैदा होने लगे हैं, माँ बाप लड़कियों को बाहर नहीं खेलने देते,कहते हैं ज़माना खराब है। किसी का भरोसा नहीं रह गया है।मोहल्ले का चाइल्ड अब बाबा और बेबी बन गया है।कागज़ के जहाज अब पुरानी बात हो गए हैं।
मोहल्ला अब खेलता नहीं, मोहल्ला जड़ हो गया है। कभी कभी छत से नीचे झाँक कर दौड़ते बच्चों को देखता है, मन करता है , पर ट्यूशन का समय हो गया है।

टी वी कहानी घर घर की हो गया है, दादियाँ 200 साल की हो गयी हैं, आदर्श बहुएँ औसतन ५ पति बदल रही हैं । आदर्श शब्द के मापदंड बदल चुके हैं। "एक चिडिया अनेक चिडिया, दाना चुगने बैठी थी" जैसे गाने नहीं सुनाई देते,किले का रहस्य अब किसी को नहीं जानना। करमचंद और किटी गुज़रे जमाने कि बात हो गए हैं क्योंकि शायद वे पूरे कपडे पहनते हैं। राधा शायद काफ़ी शॉप मे मोगली का इंतज़ार कर रही है। "मिले सुर मेरा तुम्हारा" की जगह वंदे मातरम् के नए रीमिक्स आये हैं। मालगुडी के लेखक कब के मर गए। मोहल्ला अब रविवार को चित्रहार और महाभारत देखने के लिए नहीं दौड़ता, मोहल्ला अब खुद टी वी वाला हो गया है।

मोहल्ला अब बड़ा हो गया है। भद्र लोगों ने इसका नाम सोसाईटी रखा है। ये अब भी शाम की चाय एक साथ पीता है, पर तब ,जब सोसाइटी का गटर चोक हो जाता है या बिल्डिंग मे नए लोग आने से कार पार्किंग मे दिक्कत आने लगती है।मोहल्ला अब समस्याओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गया है।
यह पहले की तरह ठहाके लगाकर नहीं हँसता, ये हलके से मुस्कुराता है. मोहल्ला भद्र हो चला है,चोरों से डरता है और चौकीदार पर बेवजह चिल्लाता है ।

रिश्ते बदल गए हैं ,पडोसी अब अंकल आंटी हो गए हैं। उनकी बेटियाँ अब राखी नहीं बांधती हैं।नमस्ते नहीं होती है, बस गर्दनें हिलाई जाती हैं । सिवैयों और बताशों के मोहल्ले अलग अलग हो गए हैं, मोहल्ले शक्की हो गए हैं, साम्प्रदायिक हो गए हैं।अब पडोसी के यहाँ की शादी मे कोई हाथ नहीं बंटाता है,मौत पर शोक नहीं मनाता है,शायद मोहल्ले की संवेदनशीलता को लकवा मार गया है ।

मोहल्ला अब मर चुका है, बल्कि उसकी तो तेरहवीं भी खाई जा चुकी है। ये कौन सी बरसी है याद भी नहीं,किसी ने भी मोहल्ले की कभी खबर तक नहीं ली, हमने बहुत देर कर दी।

Jan 18, 2008

यहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ?

एक हादसे का चश्मदीद बन कर चला आ रहा हूँ, एक बडे घर के होनहार बालक ने अपनी तेज बाईक के दंभ मे एक गरीब रिक्शे वाले को लहुलुहान कर दिया। मेरे शहर मे तेज रफ़्तार गाड़ियों से होने वाले हादसे आम बात हैं, यूं कहिये कि ये हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा बन गया है। हमने बिना हाथ दिए मुड जाने वाली स्कूटियों के कारण बाईकों को पिटते देखा है, पर आज जो हुआ वो अपने आप मे खास था। जो जनता किसी ब्रेड चुराने वाले पर कहर बन कर टूटती है वही आज सहिष्णुता की मिसाल बन गयी। बाईक चालक को "सिर्फ" समझायिश दी गयी। शायद ये इसलिए, क्योंकि जो गिरा, जिसे चोट आयी वो उस तबके का था जिसकी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो चुकी है। बाईक चालक की हैसियत ने भीड़ के मुँह पर ताला जड़ दिया था और हाथ पैरों में बेडिया डाल दी थी।

ये घटना देखकर मुझे गुवाहाटी (असम) में हुई उस घटना कि याद बरबस ही हो आयी ,जिसमें आरक्षण मांगने जा रहे आदिवासियों को बर्बरता से पीटा गया। १४-१५ साल के बच्चों को "सवर्णों" की भीड़ ने निर्दयता से इतना मारा कि "सरकारी आंकडों" को भी ३ मौतें दर्ज करनी पड़ी। उनका कुसूर सिर्फ इतना था कि वे उस राज्य में आरक्षण मांगने निकले थे जहाँ वे पुश्तों से मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे थे। भीड़ ने सब पर हाथ साफ किया, जिसे मौका मिला उसने अपनी ही तरह से, हाथ मे आये आदिवासियों की जोरदार पिटाई की। एक आदिवासी लड़की को पुलिस ने भीड़ के हाथों सौंप दिया ताकि दुशासनों की अधूरी तमन्नाएँ पूरी हो सकें।
हालांकि आदिवासी छात्रों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण तो नहीं मिला और न्याय की उम्मीद भी नहीं के बराबर है. हाँ, ये ज़रूर है कि नक्सलवादियों को नयी पौध तैयार करने मे अब ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।

वैसे "दलित की बेटी" ने भी मुख्यमन्त्री पद का भार संभालने के बाद दलितों को मुस्कुराने के कोई अवसर प्रदान नहीं किये हैं। सुना है कि मायावती सरकार ने "दलित अत्याचार अधिनियम" में संशोधन की पूरी तैयारी कर ली है। जिसके अनुसार अब हत्या और बलात्कार के अलावा बाक़ी सभी अपराधों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाएगा, यानी कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग खुलेआम होगा और पढे लिखे दलितों को नीचा दिखाने के लिए उनके पारिवारिक व्यवसाय के नाम से उन्हें संबोधित करना अब और भी आसान हो जाएगा। उत्तरप्रदेश सरकार के अनुसार इस कानून का दुरूपयोग रोकने के लिए ऐसा किया जा रहा है। मुझे तो अब महिलाओं की भी चिंता हो रही है, कहीं दहेज़ विरोधी,तलाक सम्बन्धी और बलात्कार के कानूनों को भी तथाकथित "दुरुपयोगों" के कारण ख़त्म न कर दिया जाए। हालांकि इसके खिलाफ कुछ पढे-लिखे दलितों ने लामबंदी की है और याचिका भी दायर की है,यह शिक्षित समाज ही कुछ उम्मीदें जगाता है।
वैसे इसमें "दलित की बेटी" का दोष नहीं है, जब से उन्होने "सामाजिक-यांत्रिकी" के बल पर चुनाव जीता है, वे "समाज " की दत्तक पुत्री हो गयी हैं और उन्होने यह जान लिया है कि लोकतंत्र में "पैदा करने वाले से" ज्यादा अधिकार "पालने वाले" का होता है। वे तो सिर्फ पालकों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए ऐसा कर रही हैं।

वैसे दोष तो रेनुका चौधरी का भी नहीं है, वे भी मुम्बई में नववर्ष के उपलक्ष्य में हुए कुकृत्य कि जांच के लिए उत्सुक हैं।परन्तु शायद उनतक भी गुवाहाटी की आदिवासी छात्रा की चीख नहीं पहुँच सकी, क्योंकि "मीडिया" भी शायद उस चीरहरण का वीडियो mute करके देख रहा था। अब तो लगता है कि पशु-अधिकार के लिए जूझने वाले संगठन , मानवाधिकार वाले संगठनों की बनिस्बत ज्यादा कुशलता और ईमानदारी से काम करते हैं।

Jan 15, 2008

जन्मदिन

१४ जनवरी १९८५, ये दिन मेरे परिवार के लिए बहुत ही खास था। वैसे मेरा जन्मदिन बहुत से लोगो के लिए खास होता है। कल मेरा २३ वां जन्मदिन था, मैं इसे सादगी के साथ मनाना चाहता था क्योंकि अब मैं एक बच्चा नहीं रहा , बड़ा और बेरोजगार हो चुका हूँ। पर मेरे पिछले २२ जन्मदिनों ने शायद "पार्टी" के कुछ ऐसे मानदंड स्थापित कर दिए हैं जिन्हें अब सादगी की ओर मोड़ पाना अब संभव नहीं दिखता। मेरा जन्मदिन,वह भी बिना किसी treat या party के अब तो कतई संभव नहीं है, यह बहुत लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरने जैसा होगा।हालांकि कल मैंने अपना २३ वा जन्मदिन साधारण रखने की पुरजोर कोशिश जरूर की है, और मैं इसमे शायद कुछ हद तक सफल भी रहा हूँ।

वैसे मेरे जन्मदिन पर मायावती के जन्मदिन की तरह कोई भव्य राज्यव्यापी रैली तो नहीं निकलती, ना ही सोनिया गाँधी के जन्मदिन की तरह घर के बाहर टिकट मांगने वालो की भीड़ लगती है। मेरा हर जन्मदिन दोस्तो और परिवार के साथ ही बीतता है।

जन्मदिवस के साथ साथ बहुत सारी भ्रान्तियाँ भी जुडी होती हैं, कल ही कोई मुझसे कह रह था की जनवरी में प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोग जन्म लेते हैं,वैसे एक बात बता दूँ कि प्रसिद्ध और कुख्यात मे अंतर बहुत कम लोगो को पता होता है, साथ ही शक्ति के भी कई मायने होते हैं . मेरे उस मित्र ने फिर मुझे जनवरी मे जन्म लेने वाले प्रसिद्ध हस्तियों के नाम गिनाकर मुझे convince करने का प्रयास किया। मैंने उसकी बातो से प्रभावित होकर जब इंटरनेट पर खोजबीन की तो सद्दाम हुस्सैन, मुहम्मद अली, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस,एल्विस प्रेस्ली,लुईस ब्रेल,जोन ऑफ़ आर्क, जोए फ्रेजिअर,मार्टिन लूथर किंग जूनियर,बेंजामिन फ्रैंकलिन,फ्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट, जिम कैरी जैसे नाम जनवरी की पैदाईश सूची मे पाए। ये खोज मुझे उत्साहित कर रही थी और इतने सारी प्रसिद्ध हस्तियों का नाम मेरे जन्म माह मे पाकर मेरा मन कपडे उतार कर Eureka Eureka चिल्लाने और सडको पर दौड़ने का हो पाता उससे पहले ही मेरे चेतन मन ने मुझे अन्य माहों मे पैदा हुए लोगों के नाम ढूँढने के लिए कहा, फिर मैंने पाया अलग हर माह में प्रसिद्ध हस्तियों ने उसी तादाद में जन्म लिया है जितना कि जनवरी में। इस बात के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं कि या तो मैं खास इंसान नहीं हूँ और जनवरी मे पैदा हुए अनेको गुमनाम लोगों कि तरह इस भीड़ का हिस्सा बन जाऊंगा,या फिर ये कि हर वह व्यक्ति जो इस धरती पर जन्म लेता है वह खास होता है बस ज़रूरत होती है कि वह अपनी क्षमताओं और कमियों को पहचाने,अपने लक्ष्य निर्धारित करे और उन्हें पाने के प्रयास जारी रखे,ताकि वो औरों कि तरह गुमनाम न हो जाये।

जन्मदिवस का राशियों के साथ भी महत्वपूर्ण संबंध है और राशियों का भविष्य से ,ऐसा कुछ लोग मानते हैं (या कहें कि बहुत से लोग मानते हैं)। पर जहाँ तक मैंने २३ साल कि उम्र तक जो भी observe किया है ,यह पाया है कि भिन्न भिन्न लोगों के राशिफल प्रायः प्रायः एक समान ही होते हैं और उनमे थोडा बहुत फेर बदल करके लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता है ताकि हज़ारों लोगों को सपने बेचे जाएँ और चंद लोगों कि कमाई का ज़रिया सदैव बना रहे। वैसे राशी, रत्नों, कुंडलियों, तावीजों, झाड़ फूँक इत्यादी का ये खेल बहुत पुराना है और मनुष्य के अंधविश्वास की कोई सीमा न होने के कारण ये खेल अभी लम्बा चलेगा।

वैसे ऐसे भी लोग हैं जो जन्मदिन मनाना गलत मानते हैं, उनके अनुसार आप " उस दिन"को उत्सव की तरह मन रहे हो जो आपको धीरे धीरे मौत की तरफ ले जा रहा है, अब मुझे नहीं पता की आप इसे क्या कहेंगे पर मैं तो इसे pessimism की पराकाष्ठा कहूँगा। कुछ रूढिवादी मानसिकता के लोग जन्मदिन मनाने को भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी हमले की तरह देखते हैं, इसे क्या संज्ञा दी जाए? शायद इसे मानसिक दिवालियापन कहना ही ठीक होगा। केक काटते हुए या मोमबत्तियां फूंकते हुए बच्चे को न तो पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण भय होता है और ना ही मौत की तरफ बढ़ने का। उसके मन में जो हर्षोल्लास की अनुभूति होती है उसके सामने ये सारी बातें नगण्य और ओछी हो जाती हैं।

हाँ, जन्मदिवस को मनाने के तरीको पर ज़रूर बहस की जा सकती है, वैसे एक स्वतंत्र देश में सबको छूट है की वे जैसे चाहें अपना जन्मदिवस मन सकते हैं, बस आप जो भी करे वो आपको ख़ुशी दे और किसी को नुकसान न पहुचाए.

ये पृष्ठ यहीं समाप्त करता हूँ इसी उम्मीद के साथ कि आप और मैं भले ही जन्मदिन को कैसे भी celebrate करें,करें या न करें, कम से कम अपनेअपने जन्म के महत्व को ज़रूर समझें.