विचार का दीपक बुझ जाने पर चरित्र अँधा हो जाता है। अच्छी शिक्षा मनुष्य मे अच्छे विचार पैदा करती है। शिक्षा का ध्येय ही चरित्र निर्माण होता है।मनुष्य की आंतरिक सुन्दरता को सिर्फ और सिर्फ अच्छी शिक्षा से उजागर किया जा सकता है।अच्छी शिक्षा व्यवस्था किसी भी राष्ट्र के विकास की रीढ़ होती है। संसाधनों की उपलब्धता,प्रतिव्यक्ति आय या रहन सहन से किसी भी राष्ट्र के विकास का मापन संभव नहीं है जब तक कि इसमे चिकित्सा और शिक्षा जैसे मूलभूत तत्वों को शामिल न किया जाये।
"भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान की धरती माना जाता रहा है। नालंदा और तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों मे विश्व भर के प्रबुद्ध छात्र अपने ज्ञान को निखारने के लिए आते रहे।भारत ने विश्व को समय समय पर चोटी के विद्वान् दिए।"ये सब अब पुरानी बातें हो गयी हैं। ये " दिल को बहलाने के लिए ख़याल अच्छा है गालिब" वाली बातें हैं।भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से बीमारू हालत मे है,और यही सच है। भले ही ये कितना ही कड़वा क्यों न हो। कब तक मैं और आप चरक,चाणक्य,आर्यभट्ट का नाम गा गाकर खुद को बेवकूफ बनाते रहेंगे। सच्चाई हम सब जानते हैं, ये अलग बात है कि हम आत्मसंतुष्टि के लिए आँखें मूँद कर पूर्वजों के ज्ञान का गुणगान करते रहते हैं और भविष्य की पीढ़ी के साथ हो रहे खिलवाड़ से अनजान बने रहते हैं।
भारत मे सरकारों ने भी शिक्षा को हमेशा नजरअंदाज किया है।तमाम लंबे चौड़े दावों के बावजूद न तो इसे सर्वसुलभ बना पाए हैं और न ही इसे मानवीय स्पर्श दे पाए हैं।पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के ४२ हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। जब बैठने तक के लिए भवन नहीं हैं तो सीखने-सिखाने के अन्य उपकरणों और शेष शैक्षिक प्रक्रियाओं की बात करना ही बेमानी है।अमेरिका मे कुल बजट का १९.९ %, जापान मे १९.६%, इंग्लैंड मे १३.९% शिक्षा पर खर्च किया जाता है। अफसोसजनक है कि भारत मे शिक्षा पर बजट का मात्र ६ प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है, और खुद को भविष्य की महाशक्ति कहा जाता है।
राज्य सरकारों के पास तो शिक्षकों को वेतन देने तक के लिए पैसा नहीं निकलता, ये दीगर बात है की फीलगुड जैसे राजनीतिक प्रचारों मे अरबों रुपयों का जो चूना लगता है वो भारत के आम नागरिक की जेब से ही जाता है। शिक्षकों से पढाने के अलावा बाक़ी सभी काम लिए जाते हैं, फिर वो चुनाव ड्यूटी हो या पल्स पोलियो।शिक्षक को शिक्षाकर्मी, गुरुजी और शिक्षामित्र बना कर राज्य सरकारों ने, शिक्षकों के लिए जनता के मन मे जो रहा सहा आदर भाव था वो भी ख़त्म कर दिया। हर राज्य से इन ठेके के शिक्षकों के पिटने की खबर आती रहती हैं।
मध्यान्ह भोजन के नाम पर भी लोग धांधली करने से नहीं हिचकते। देहातों मे मध्यान्ह भोजन मे कीडे मकोडे मिलना तो आम बात हैं, किसी किसी राज्य मे तो जैसे मध्यान्ह भोजन योजना सड़े गले अनाज के निपटारण का तरीका बन गया हो।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत मे स्कूल जाने वालों मे ४० % बच्चे अंडरवेट होते हैं, और ४२% कुपोषण के शिकार। ये आंकडे मध्यान्ह भोजन और आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं की पोल खोने के लिए काफी हैं।
भारत में उच्च शिक्षा की हालत भी कोई ख़ास नहीं है।भारत में ९२७८ महाविद्यालय और २६० विश्वविद्यालय हैं। पर अभी भी हम उच्च शिक्षा के वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में अक्षम हैं।विश्वविद्यालयों में निर्रुद्देश्य हड़ताल,कक्षाओं का बहिष्कार, शिक्षकों से दुर्व्यवहार और छात्राओं से छेड़खानी की घटनाओं ने भारतीय उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण के कारण बढ़ती अनुशासनहीनता का स्याह रूप दिखाया है। आधे से ज्यादा विश्वविद्यालय आर्थिक बदहाली से जूझ रहे हैं।विज्ञान और तकनीकी महाविद्यालयों में प्रायोगिक शिक्षा और शोध के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है।
मीडिया और सरकार दोनों आईआईटी और आईआईएम् की चकाचौंध से इतने अंधे हो गए हैं कि उनका इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं जाता कि क्यों देश के ६३% बच्चे १०वी कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं, या इस बात पर कि जो शिक्षक स्कूली स्तर पर पढा रहे हैं वे उस लायक हैं भी या नहीं। आपकी नींव ही कमजोर है और आप एक उच्चवर्गीय सतही शिक्षा के विकास का ढोल पीट रहे हों तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।
प्रतियोगी परीक्षाओं में पास कराने के नाम पर कोचिंग संस्थान अपना धंधा जिस तरह फैला रहे हैं उससे तो यही लगता है कि कुछ समय बाद इस देश में कोचिंग सेंटरों की संख्या स्कूलों और कॉलेजों से भी ज्यादा हो जायेगी।
ये जो थोक के भाव प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं उनकी भी सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गयी है।यहाँ किसी मानक का ध्यान नहीं रखा जाता। PET और PMT में जो छात्र पास नहीं हो पाते वे यहाँ मोटी फीस चूका कर भविष्य के डॉक्टर और इंजिनियर बनते हैं। कई प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के पास तो खुद की लैब भी नहीं होती।अब ऐसे कोलेजों के कारण जो झोलाछाप डॉक्टर और कबाडी इंजीनियरों की पैदावार बढ़ी है ,उसमे कोई आश्चर्य नहीं।
अचरज की बात तो ये है कि जब आरक्षण की बात आती है तो प्रतिभा का राग अलापकर देशभर में विरोध किया जाता है और पूरा देश गरीब आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रतिभा पर अचानक ही शक करने लगता है, पर इन प्राइवेट कॉलेजों से निकलने वाली "तथाकथित प्रतिभाओं" पर किसी को लेशमात्र भी एतराज नहीं होता। अब इसका कारण जो भी हो,पर यह बात सोचने पर मजबूर करती है।
जहाँ भारत की अर्थव्यवस्था विद्या का पलायन रोकने में अक्षम है, वहीं भारत की शिक्षा रोजगार दिलाने में। ऐसे में ये भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि शिक्षा के क्षेत्र के ऊपर ज्यादा ध्यान दिया जाए, सीधे शब्दों में कहूँ तो ज्यादा आर्थिक ध्यान दिया जाए।राज्य सरकार भी अपना उत्तरदायित्व समझें और शिक्षकों को शिक्षक ही रहने दें, शिक्षा मजदूर (शिक्षाकर्मी) न बनाएं।
चीनी विद्वान कंफ्युशिअस ने १००० साल पहले एक बात कही थी कि " अगर तुम १ साल आगे का सोचते हो तो चावल बोना शुरू करो, १० साल बाद के लिए सोचते हो तो पेड़ लगाओ,,अगर तुम्हारी सोच १०० साल आगे की है तो बेहतर होगा कि लोगों को शिक्षित करो।" मैं आशा करता हूँ कि ये बात सब के कानो तक पहुँचेगी और दिमाग तक भी ।
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