Jul 2, 2012

राष्ट्रीय समस्याओं में मीडिया की भूमिका पर 'डूड विमर्श'

[ डूड (Dude) अमेरिकी सिनेमा के प्रभाव से लिया गया शब्द है. यह एक अमेरिकन स्लैंग है. डूड दरअसल उस व्यक्ति को कहा जाता था जो तगड़ी आर्थिक और शहरी पृष्ठभूमि के हुआ करते थे और इसलिए दुनियावी बातों,तरीकों,झंझटों से बेखबर हुआ करते थे. इस डूड का अपना ही एक व्यक्तित्व होता है और हर चीज को देखने का एक अपना ही अलग सरलीकृत नजरिया है. इसे मैं डूड नजरिया कहता हूँ. भारत में भी नव-धनाढ्य वर्ग के नौजवानों की संख्या बढी है, आज का भारतीय नौजवान खुद को और अपने मित्रों को डूड कहता है.

ये डूड तीन प्रकार के होते हैं/हो सकते हैं -

Ultimate Dude- डूड संस्कृति के कट्टर अनुयायी.
Wannabe Dude- जो अल्टीमेट डूड बनने की प्रक्रिया में हैं.
Lesser Dude- जो डूड कहलाते तो हैं पर डूड लक्षण दर्शाने में पिछड़े रह जाते हैं.

यहाँ मेरे द्वारा इस समाजशास्त्रीय रिसर्च थीसिस में इन्ही देसी डूड्स का नजरिया प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है.
]

Dude 1 (टीवी रिमोट उठाते हुए)- अरे वो आमिर का शो देखा? दहेज़ वाला!

Dude २- हाँ रिपीट देखा था, थोडा सा.

Dude 1 - कुछ भी लॉजिक था बे!! जो दे रहा है उसको प्रॉब्लम नहीं, तो साला लेने वालों की क्यों लगा रहे हो?!?

Dude3 - लेकिन वो पहला केस भी सायको था भाई...लड़की से लाखों रूपये चेत लिए और उसका खाना वाना बंद कर दिया....कमीनेपन की भी कोई लिमिट होती है.

Dude 2- हाँ खाना देना बंद किया दैट वाज़ अ लिमिट..लॉन्ग टर्म बेनेफिट थी यार वो... खाना ही तो देना था..हे हे हे.. खाना वाना देता रहता...वो भी घर में पड़ी रहती...पैसा आता रहता.

Dude 1-हा हा हा और क्या.
(चैनल पर ठिठकते हुए)..कैन यू बिलीव? इतना कट-थ्रोट कॉम्पीटीशन है तब भी ये सरकारी न्यूज़ चैनल कोई से नॉर्थईस्ट स्टेट के फ्लड की ख़बरें दे रहे हैं.
है क्या ये साला असम-वसम...रहते क्यों हैं लोग ऐसी जगह पे जहां बाढ़-वाढ़ आये.                  
ये इस वाले डिबेट होस्ट को देख..ब्लडी ओल्ड फार्ट!..आय मीन कमऑन यार ! हाउ लेम एंड अनग्लैमरस अ सरकारी चैनल कैन बी?

Dude 2 (सर्वज्ञता के भाव के साथ) - ऐज़ आय आलवेज़ से बडी.. इस कंट्री में कॉम्पेटेटिव माहौल सेट करना है तो सबकुछ प्राइवेटाइज्ड  करना ही होगा. नहीं तो ऐसे ही चलता रहेगा.

Dude 1 (चैनल बदलते हुए)- सच में यार..पता नहीं ये साले पौलिटीशियंस कब समझेंगे.

Dude 3 - प्राइवेट चैनल कौन सा बड़ा तीर मार रहे हैं....न्यूज़ के अलावा बाकी सब दिखा रहे हैं...इतना भी ग्लैमर क्या काम का....न्यूज़ रीडर का स्ट्रिपटीज़ करना ही बस बाक़ी रह गया है.

Dude 2 (बात काटते हुए) - भाई मैं तो ब्लौग मीडिया प्रिफर करता हूँ. ये सब फ़ालतू कचरा न्यूज़ नहीं रहती उसमे. हाँ .पर सब ब्लौगर हिन्दी बेल्ट वाले हैं तो बीच बीच में कोई होशियारचंद टाइप के आकर कुछ नक्सली-वक्सली,किसान-विसान के ऊपर लिख देते हैं..लेकिन मानना पड़ेगा डेल्ही बेली और वासेपुर की क्या गजब इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग करे हैं उन लोगों ने.

Dude 3 - बहुत बड़ा वाला है तू..'फिल्म की इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग'?? पहली बार सुन रहा हूँ..हाहाहा

Dude 1 (गन्दा सा लुक देकर तिरस्कार से)- भग बे, ब्लौग-व्लॉग कौन पढ़े साला वो भी हिंदी.ई..ई.ई..में.
यक्क.

Dude 2 (रक्षात्मक होकर सहमति जताते हुए) -  सीरियसली... हिंदी तो अनझेलेबल है..लेकिन थोडा बहुत पढ़ लेते हैं...द गुड थिंग इज दैट यू कैन एटलीस्ट चूज़ व्हाट यू वांट टू रीड, यू नो!
(फिर झटके से)- अबे येई येई..अबे वो लगा न...पीछे कर पीछे...हाँ... बेटा ये है चैनल ..लुक एट दीज़ ब्यूटीज़.

Dude1- व्हो मैन! आर दे कम्पेयरिंग 'मेगान फॉक्स' विद 'सलमा हायेक'?.. अरे रे ... दोनों ही क्या रापचीक माल लगती हैं बाव़ा...जस्ट लुक एट हर... स्साला अपने इंडिया में ऐसा सामान क्यों पैदा नहीं होता????

Dude 3 (मुस्कुराकर आँख मारते हुए) - कन्या भ्रूण हत्या के कारण.

डूड ठहाका (Dude Laughter)

*डूड विमर्श समाप्त*

[अगली कड़ी 'सामाजिक समस्याओं पर बेब विमर्श']

Jun 30, 2011

चवन्नी : मेरे बचपन का पूँजीवाद

दोस्तों आज चवन्नी हम से विदा हो गयी। तुम लोग सोचोगे कि ये क्या 'मुंह्बाजी' है पर सच में पता नहीं क्यों मुझे इसके जाने का बहुत दुःख हुआ।
समय बदलता रहता है, हमारे बड़ों ने शायद 'आने'(वही एक आना,दो आना) को इस तरह याद किया होगा और शायद आज से बीस-पच्चीस साल बाद आने वाली पीढ़ी में से कोई 'हजार के नोट' की समाप्ति पर कुछ दुःख व्यक्त करे। पर मेरे बचपन की औकात तो चवन्नी तक ही सीमित थी,इसलिए मैं इसके सम्मान में कुछ शब्द कहूँगा।

मुझे पंजी,दस्सी और बीस पैसे के जाने का कभी उतना दुःख नहीं हुआ जितना इस छोटी सी गोल चवन्नी के विलुप्त होने का, क्योंकि बचपन में ये मेरे छोटी छोटी हथेलियों में आसानी से आ जाती थी और इसे नन्ही सी मुट्ठी में दबा के 'कुल्फी,फुलकी वाले भैयाओं' या 'गटागट-बोरकुट-आमकुट बेचने वाली अम्माओं' के पास जल्दी से भाग के पहुंचा जा सकता था। बाकी पैसे हाथ में गड़ते थे पर चवन्नी तो जैसे हम बच्चों के लिए ही बनी थी। गुल्लक के फूटने के बाद बड़े-छोटे,आड़े-टेढ़े सिक्कों के बीच पड़ी हुई चवन्नियां कितनी क्यूट लगा करती थी।

खेलने के लिए कंचे, खाने के लिए संतरे,नारियल या मिंट की गोलियां,आइस कैन्डी-आइस गोला और चॉकलेट (तब किसमी टॉफी या मेलोडी को ही चॉकलेट बोलकर खाते थे), पढ़ाई के लिए पेंसिल-रबर-कटर सब आता था चवन्नी में। वो भी क्या दिन थे जब जेबखर्च के रूप में हमें चवन्नी मिलती थी और उस चवन्नी से मानो हम दुनिया खरीद लिया करते थे।

सोचा न था कि चवन्नी के जाने से गायब हो जायेंगे चवन्नी छाप,चवन्नी चोर जैसे शब्द, और कंजूसों के लिए फिर नए शब्द गढ़ने की जिम्मेदारी समाज पर होगी. साथ ही ये भी सोचने वाली बात है कि चवन्नी,दस्सी,पंजी जैसे नाम समाज द्वारा प्यार से दिए गए थे,बड़े सिक्कों को क्या कभी हम इतने लाड़ से बुला पाएंगे?

थोडा दुःख तो इस बात का भी है कि धीरे-धीरे बाजार से अठन्नी और एक रुपये का सिक्का भी गायब हो जायेंगे जिन्होंने किराए में ही सही हमारा परिचय 'हमारे साहित्य' से कराया था, चाचा चौधरी,बिल्लू,पिंकी जैसे चरित्रों को हमारे सपनों में जगह दी थी और यही वो सिक्के हैं जो दरअसल हमें टेक्नोलॉजी के द्वार तक ले गए थे तथा हमें 'मारियो' और 'कोंट्रा' के दर्शन कराए थे। मेरा मानना है कि आजकल के बच्चों के सामने हमारी कोई तुलना नहीं और उनकी बढती मांगों पर हमें कोई नाराजगी नहीं होनी चाहिए। पर अच्छा लगता है ये सोचकर कि हम अभावों में खुश रहने वाली पीढ़ी से थे और गर्व होता है कि इसी खूबी के कारण हमारी पीढ़ी के बच्चे 'चिल्लर पार्टी' नाम से जाने गए।

खैर, इस चेंज (चिल्लर) की जरूरत शायद अब हमारी चेंजिंग इकोनोमी को नहीं है। इसलिए चवन्नी को हमारे बचपन की इतनी यादों का हिस्सा बनने के लिए सादर-सप्रेम धन्यवाद और भरे मन से अलविदा।