एक हादसे का चश्मदीद बन कर चला आ रहा हूँ, एक बडे घर के होनहार बालक ने अपनी तेज बाईक के दंभ मे एक गरीब रिक्शे वाले को लहुलुहान कर दिया। मेरे शहर मे तेज रफ़्तार गाड़ियों से होने वाले हादसे आम बात हैं, यूं कहिये कि ये हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा बन गया है। हमने बिना हाथ दिए मुड जाने वाली स्कूटियों के कारण बाईकों को पिटते देखा है, पर आज जो हुआ वो अपने आप मे खास था। जो जनता किसी ब्रेड चुराने वाले पर कहर बन कर टूटती है वही आज सहिष्णुता की मिसाल बन गयी। बाईक चालक को "सिर्फ" समझायिश दी गयी। शायद ये इसलिए, क्योंकि जो गिरा, जिसे चोट आयी वो उस तबके का था जिसकी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो चुकी है। बाईक चालक की हैसियत ने भीड़ के मुँह पर ताला जड़ दिया था और हाथ पैरों में बेडिया डाल दी थी।
ये घटना देखकर मुझे गुवाहाटी (असम) में हुई उस घटना कि याद बरबस ही हो आयी ,जिसमें आरक्षण मांगने जा रहे आदिवासियों को बर्बरता से पीटा गया। १४-१५ साल के बच्चों को "सवर्णों" की भीड़ ने निर्दयता से इतना मारा कि "सरकारी आंकडों" को भी ३ मौतें दर्ज करनी पड़ी। उनका कुसूर सिर्फ इतना था कि वे उस राज्य में आरक्षण मांगने निकले थे जहाँ वे पुश्तों से मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे थे। भीड़ ने सब पर हाथ साफ किया, जिसे मौका मिला उसने अपनी ही तरह से, हाथ मे आये आदिवासियों की जोरदार पिटाई की। एक आदिवासी लड़की को पुलिस ने भीड़ के हाथों सौंप दिया ताकि दुशासनों की अधूरी तमन्नाएँ पूरी हो सकें।
हालांकि आदिवासी छात्रों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण तो नहीं मिला और न्याय की उम्मीद भी नहीं के बराबर है. हाँ, ये ज़रूर है कि नक्सलवादियों को नयी पौध तैयार करने मे अब ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।
वैसे "दलित की बेटी" ने भी मुख्यमन्त्री पद का भार संभालने के बाद दलितों को मुस्कुराने के कोई अवसर प्रदान नहीं किये हैं। सुना है कि मायावती सरकार ने "दलित अत्याचार अधिनियम" में संशोधन की पूरी तैयारी कर ली है। जिसके अनुसार अब हत्या और बलात्कार के अलावा बाक़ी सभी अपराधों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाएगा, यानी कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग खुलेआम होगा और पढे लिखे दलितों को नीचा दिखाने के लिए उनके पारिवारिक व्यवसाय के नाम से उन्हें संबोधित करना अब और भी आसान हो जाएगा। उत्तरप्रदेश सरकार के अनुसार इस कानून का दुरूपयोग रोकने के लिए ऐसा किया जा रहा है। मुझे तो अब महिलाओं की भी चिंता हो रही है, कहीं दहेज़ विरोधी,तलाक सम्बन्धी और बलात्कार के कानूनों को भी तथाकथित "दुरुपयोगों" के कारण ख़त्म न कर दिया जाए। हालांकि इसके खिलाफ कुछ पढे-लिखे दलितों ने लामबंदी की है और याचिका भी दायर की है,यह शिक्षित समाज ही कुछ उम्मीदें जगाता है।
वैसे इसमें "दलित की बेटी" का दोष नहीं है, जब से उन्होने "सामाजिक-यांत्रिकी" के बल पर चुनाव जीता है, वे "समाज " की दत्तक पुत्री हो गयी हैं और उन्होने यह जान लिया है कि लोकतंत्र में "पैदा करने वाले से" ज्यादा अधिकार "पालने वाले" का होता है। वे तो सिर्फ पालकों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए ऐसा कर रही हैं।
वैसे दोष तो रेनुका चौधरी का भी नहीं है, वे भी मुम्बई में नववर्ष के उपलक्ष्य में हुए कुकृत्य कि जांच के लिए उत्सुक हैं।परन्तु शायद उनतक भी गुवाहाटी की आदिवासी छात्रा की चीख नहीं पहुँच सकी, क्योंकि "मीडिया" भी शायद उस चीरहरण का वीडियो mute करके देख रहा था। अब तो लगता है कि पशु-अधिकार के लिए जूझने वाले संगठन , मानवाधिकार वाले संगठनों की बनिस्बत ज्यादा कुशलता और ईमानदारी से काम करते हैं।
Jan 18, 2008
यहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ?
पर 9:53 AM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment