Jan 23, 2008

एक मोहल्ले की कहानी

१४-१५ साल पहले ईंटों का जो जमावड़ा लगा था, वो आदमकद "बाउंड्रीवाल" बन चुका है। कंक्रीट के जंगलों ने जो मैदान खा लिए थे ,अब बहुमंजिला की छत पर कभी कभी दिखाई देते हैं। बाउंड्री है,ताकि पडोसी घर की कलह देख न सकें, ताकि बच्चों के प्रतिशत कम न हों, ताकि नयी गाड़ी पर नज़र न लगे,ताकि बाहर खेलते बच्चों की गेंद घर में न घुस सके। कहीं घर से ऊंची बाउंड्री है, कहीं बाउंड्री में ही घर है। बाउंड्री और गेट से हैसियत का अंदाजा लगाया जाने लगा है, इतनी ऊँचाई रखी जाती है ताकि आने वाले को ओछेपन का एहसास कराया जा सके और मन मे खौफ पैदा हो । दीवारों से मन नहीं भरा तो ऊपर नुकीले भाले लगा दिए।भीतर का आदमी कूपमंडूकता मे गर्व महसूस करने लगा है।

खेलने कूदने की जगह तो पहले ही खप गयी थी, गिरने पड़ने की जगह भी छिन गयी,बचपन बिना चोटों के गुजरता है,घर आने पर मार भी नहीं पड़ती। रंग बिरंगी बैंडेज खरीदने का इकलौता बहाना भी छिन गया।
अंग्रेजी मे जैसे सारे बच्चों को बिना किसी भेदभाव के चाइल्ड कहते हैं, पहले मोहल्ले के बच्चे भी चाइल्ड ही होते थे। लड़के लड़की साथ मिलकर गेंद-पिट्टू ,लुका-छिपी, भौंरा-लट्टू खेलते थे, थोडा बडे होने पर अन्ताक्षरी के दौर चलते थे। अब बच्चे बडे ही पैदा होने लगे हैं, माँ बाप लड़कियों को बाहर नहीं खेलने देते,कहते हैं ज़माना खराब है। किसी का भरोसा नहीं रह गया है।मोहल्ले का चाइल्ड अब बाबा और बेबी बन गया है।कागज़ के जहाज अब पुरानी बात हो गए हैं।
मोहल्ला अब खेलता नहीं, मोहल्ला जड़ हो गया है। कभी कभी छत से नीचे झाँक कर दौड़ते बच्चों को देखता है, मन करता है , पर ट्यूशन का समय हो गया है।

टी वी कहानी घर घर की हो गया है, दादियाँ 200 साल की हो गयी हैं, आदर्श बहुएँ औसतन ५ पति बदल रही हैं । आदर्श शब्द के मापदंड बदल चुके हैं। "एक चिडिया अनेक चिडिया, दाना चुगने बैठी थी" जैसे गाने नहीं सुनाई देते,किले का रहस्य अब किसी को नहीं जानना। करमचंद और किटी गुज़रे जमाने कि बात हो गए हैं क्योंकि शायद वे पूरे कपडे पहनते हैं। राधा शायद काफ़ी शॉप मे मोगली का इंतज़ार कर रही है। "मिले सुर मेरा तुम्हारा" की जगह वंदे मातरम् के नए रीमिक्स आये हैं। मालगुडी के लेखक कब के मर गए। मोहल्ला अब रविवार को चित्रहार और महाभारत देखने के लिए नहीं दौड़ता, मोहल्ला अब खुद टी वी वाला हो गया है।

मोहल्ला अब बड़ा हो गया है। भद्र लोगों ने इसका नाम सोसाईटी रखा है। ये अब भी शाम की चाय एक साथ पीता है, पर तब ,जब सोसाइटी का गटर चोक हो जाता है या बिल्डिंग मे नए लोग आने से कार पार्किंग मे दिक्कत आने लगती है।मोहल्ला अब समस्याओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गया है।
यह पहले की तरह ठहाके लगाकर नहीं हँसता, ये हलके से मुस्कुराता है. मोहल्ला भद्र हो चला है,चोरों से डरता है और चौकीदार पर बेवजह चिल्लाता है ।

रिश्ते बदल गए हैं ,पडोसी अब अंकल आंटी हो गए हैं। उनकी बेटियाँ अब राखी नहीं बांधती हैं।नमस्ते नहीं होती है, बस गर्दनें हिलाई जाती हैं । सिवैयों और बताशों के मोहल्ले अलग अलग हो गए हैं, मोहल्ले शक्की हो गए हैं, साम्प्रदायिक हो गए हैं।अब पडोसी के यहाँ की शादी मे कोई हाथ नहीं बंटाता है,मौत पर शोक नहीं मनाता है,शायद मोहल्ले की संवेदनशीलता को लकवा मार गया है ।

मोहल्ला अब मर चुका है, बल्कि उसकी तो तेरहवीं भी खाई जा चुकी है। ये कौन सी बरसी है याद भी नहीं,किसी ने भी मोहल्ले की कभी खबर तक नहीं ली, हमने बहुत देर कर दी।

1 comment:

anuradha srivastav said...

बिल्कुल सही लिखा सोच कर दिल भर आया .अब ना वो अपनापन है, ना रिश्ते ना वो लाड ना दुलार। दिवाली तो मनाते ही थे. साथ में पडोस में बेधडक ईदी वसूल करने भी जाते थे। सब भूली-बिसरी बातें हो गई अब तो।