Mar 12, 2008

आमिर बनाम शाहरुख ,प्रतिभा बनाम सफलता !

मीडिया को खरीदना ही यदि मीडिया प्रबंधन है तो खरीदने मे शाहरुख खान का कोई सानी वैसे भी नहीं है। पत्नी के लिए द्वीप खरीदना हो या फिल्मफेयर के अवार्ड, शाहरुख की खरीददारी का शौक बहुत पुराना है। वैसे बौलीवूड का बादशाह का खिताब हासिल करने के लिए शाहरुख खान ने कितने रूपये खर्च किए ये तो वही बता सकते हैं। शाहरुख खान जैसे लोगों ने अवार्ड कार्यक्रमों को ना सिर्फ़ अश्लील और भद्दा बना दिया है, बल्कि फिल्मफेयर जैसे अवार्डों की विश्वसनीयता भी समाप्त कर दी है। शाहरुख खान चापलूसों से घिरे रहना बहुत पसंद करते हैं और आलोचना उन्हें रत्ती भर पसंद नहीं। यही कारण है कि उन्होंने २००८ के फिल्मफेयर अवार्ड शो मे आलोचकों को जी भर के सांकेतिक गालियाँ दी वो भी सैफ अली खान के साथ मिलकर (वे सैफ अली खान, जिनकी झोली मे करीना के अलावा कोई बड़ी सफलता नहीं है)। शाहरुख खान की फूहड़ सफलताएं उनके सिर चढ़ कर बोल रही हैं और वे ख़ुद को मनमोहन देसाई के कद का समझने लगे हैं।

मीडिया तुलना करता है। परन्तु बिके हुए मीडियाकर्मियों को इस बात का भान नहीं है कि स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए स्वस्थ तुलना का होना आवश्यक है। शाहरुख की तुलना जब आमिर खान से की जाती है तो दुःख होता है, क्योंकि तुलना बराबरी वालों से की जाती है। आमिर खान रचनात्मकता के मामले मे शाहरुख खान से कोसों आगे हैं। "मन" और "मेला" जैसी इक्कादुक्का फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हम पायेंगे कि आमिर खान की हर फ़िल्म ने ना सिर्फ़ नैतिक संदेश दिया है, बल्कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन भी किया है। आमिर खान फ़िल्म इंडस्ट्री मे व्याप्त चमचागिरी से अछूते रहे हैं, और "ब्लैक" जैसी बकवास फ़िल्म का विरोध करने का साहस कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसका मन आमिर की तरह साफ हो। रामदौस द्वारा जब शाहरुख के फिल्मों एवं सार्वजनिक स्थल पर धूम्रपान करने की आदत पर ऊँगली उठायी गयी थी तो शाहरुख ने रचनात्मक स्वतंत्रता का लबादा ओढ़ कर अपना पिंड छुडा लिया था। शाहरुख और रचनात्मकता ! सुन के ही हँसी आती है।

पिछले वर्ष सबसे ज्यादा कमाई करके और सबसे ज्यादा हिट फिल्म देकर अक्षय कुमार प्रथम स्थान पर आ गए हैं, और शाहरुख खान प्रोडक्शन की फ़िल्म " ॐ शांति ॐ" एक निहायत ही फूहड़ किस्म की फ़िल्म थी , शाहरुख अगर यह बात स्वीकार करने का साहस नहीं रखते हैं तो उन्हें आलोचकों को अपशब्द कहने का अधिकार भी नहीं है। शाहरुख खान ने अबतक सिर्फ़ एक इतिहास आधारित किरदार निभाया है, और उसमे भी सम्राट अशोक के व्यक्तित्व का कबाडा कर दिया। रही बात चक दे इंडिया की, तो उसमे भी शाहरुख का अभिनय औसत दर्जे का ही रहा है। किसी को मेरी बात पर शक हो तो वे डिज्नी मोशन पिक्चर्स की खेल आधारित फिल्में उठा कर देख सकते हैं। चक दे जैसी सैंकडों फ़िल्म डिज्नी वाले पहले ही बना चुके हैं।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे नामी अखबार मे पिछले दिनों एक लेख आया था, जिसमे सचिन और शाहरुख की तुलना की गयी थी। ये तो हद है, अब तो मीडिया की इन हरकतों से दुःख नहीं होता बल्कि घिन छूटती है। चलिए मान लें कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया को २४ घंटे चलने के लिए कुछ न कुछ चाहिए पर प्रिंट मीडिया की क्या मजबूरी है? ( मजबूरी ही है या कोई लाभ है ! )

अगर मीडिया सही तुलना करने का साहस उठाये तो ना सिर्फ़ शाहरुख का स्वघोषित एवं स्वप्रायोजित ताज छिन जायेगा बल्कि समाजवादी पार्टी के पोस्टर बॉय अमिताभ की "महानायक" की पदवी भी छिन जायेगी।

1 comment:

अनिल रघुराज said...

बहुत खरी बात कही है आपने। सच है सब प्रपंच है मीडिया का। अंदरखाने क्या चलता है पता नहीं।