Jan 31, 2008

सरनेम(उपनाम) की उत्पत्ति और विकास का सिद्धांत

जब देखता हूँ कि आज हर जगह सरनेम का लफडा है, तो कभी कभी सोचता हूँ कि सरनेम की शुरुआत कैसे हुई होगी। ज्यादा दूर न जाके भारत मे सरनेम की उत्पत्ति पर विचार करते हैं।( अब कोई ये न समझे कि भारत सॉफ्ट टार्गेट है, या भारतीय सहिष्णु होते हैं इसलिए मैं भारत की बात कर रहा हूँ।मैं भारत की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं भारत के बाहर कभी गया ही नहीं। और ये बताएं कि सरनेम की उत्पत्ति पर विचार करने के लिए भारत से अच्छा अध्ययन स्थान कोई और हो सकता है। ऐसी "सर्नेमिक विविधता" वाला देश हमे कहाँ मिलेगा बताइए। इसलिए मेरी बात को अन्यथा न लें, और अगर ले रहे हों तो भाड़ मे जाएँ। )

चलिए कोष्टक मे जो भी लिखा है वो सारी कूटनीतिक बात को पीछे छोड़ कर आते हैं मुद्दे पर, और बात करते हैं सरनेम की। मैंने कुछ कथित रुप से विद्वान टाईप बुजुर्गों से इस बारे मे कभी पूछा था। सबने अलग अलग बात बताई। उनकी बकवास का और मेरे विचार मंथन का जो भी लब्बो-लुआब निकल कर आया वो कुछ इस तरह का था :-

पाषाणकाल मे सरनेम का कोई महत्व नहीं रहा होगा। क्योंकि उस काल मे सारे काम लोग मिलजुल कर करते थे।कबीले के नौजवान शिकार करते थे,औरतें कपडे सिलने, खाना पकाने के अलावा कढाई बुनाई की क्लास ज्वाइन करती रही होंगी, और बुजुर्ग प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हुए टिक्के और कबाब का आनंद लेते रहे होंगे या आपस मे मिलकर गपशप किया करते होंगे।हर कोई मांसाहारी था, हर कोई चमार था हर कोई बन्सोड था, इसलिए छुआछुत वाली कोई बात ही नहीं रही होगी।उस समय अगर सरनेम रहे भी होंगे तो शायद ऐसे रहे होंगे-


बीमारी का बहाना बनाकर शिकार पर ना जाने वाले- कामचोर
शिकार पर जाने के लिए हमेशा तैयार- मेहनती
कोई शिकार करके लाये फिर भी न खा पायें- अलाल
शिकार कोई और लाये और ये खा जाएं- शिकारचोर या हरामखोर
पत्ते पहनने वाले- पत्राम्बर
चमड़ा पहनने वाले-चम्राम्बर
पत्ते से पोंछने वाले-पत्रपोंछे
पानी से धोने वाले- पणधुले
सूअर का शिकार करने वाला-सूअरमारे
हाथी का शिकार करने वाला- हाथिमार

कहने का मतलब यह है कि जो जैसा काम करता रहा उसे वैसा ही उपनाम मिलता रहा। अब धीरे धीरे ये उपनाम या सरनेम वंशानुगत होते गए होंगे. इनके वंशानुगत होने में भी मनुष्य के स्वभाव ने ही अहम् भूमिका निभाई होगी.उदाहरण के तौर पर जैसे कबीले के सरदार ने किसी एक हाथी के शिकारी युवक को एक भेड़,पत्थर का भाला और हाथीमार की उपाधि ईनाम में दी होगी,वो अचानक ही "कबाईलीयन ऑफ़ दी ईयर" बन गया होगा और कबीले की सुंदरियों की निगाह में चढ़ गया होगा.ये सब देखकर उसके साथी जल मरे होंगे. रात में मदिरापान के समय किसी जब उसने गर्व से वो भाला अपने साथियों को दिखाया होगा तो किसी ने जलनखोरी में चिढ़कर उसे कह दिया होगा कि "चल बे, ये भाला हमें न दिखा, हमें तेरे पूरे खानदान का पता है, तेरा परदादा मुर्गिमार था,तेरा दादा सूअरमार था,तेरा बाप भी सूअरमार था. तू चाहे कितने भी हाथी मार ले, रहेगा तो तू सूअर मार की औलाद ही ना।" बस ऎसी ही कुछ घटनाओं से सरनेम वंशानुगत हो गए होंगे,कुछ जलनखोरों ने मिलकर पूरा इतिहास बदल दिया होगा।

अब हरित क्रांति का दौर आया,रोजगार बढ़ गए और साथ ही कामों की विविधता भी बढ़ गयी।कोई बेरोजगार न रह गया। कबीले अब गाँव बन गए होंगे। अब गाँव का नाम भी लोगों की पहचान बन गया होगा. नाम,बाप का नाम के साथ एक और सवाल जुड़ गया होगा गाँव का नाम. लोग हर अनजाने से पूछते होंगे "कौन हो भाई,कौन गाँव से आये हो?"अब हर कोई तो इतना सहनशील नहीं होता कि बार बार नाम बताये फिर गाँव का नाम बताये. तो कुछ लोगों का दिमाग खराब हुआ और उन लोगों ने अपने गाँव के नाम अपने सरनेम बना लिए. साहिर लुधियानवी और हसरत जयपुरी उन्हीं में से रहे होंगे. अब नाम पते की चिकल्लस ख़त्म हो गयी।

हरित क्रांति के बाद गाँवों का आर्थिक विकास हुआ,जो काम धंधा करते रहे वो कभी गाँव के तो कभी काम के नाम से पहचाने जाते रहे होंगे।समाज दो वर्गों में बाँट गया होगा; मेहनत करके खाने कमाने वाले और बैठ कर रोटियाँ तोड़ने वाले. खाने को बहुत था इसलिए एक वर्ग मेहनत करना ही नहीं चाहता था.अब एक बड़ी दुविधा उत्पन्न हो गयी थी. मेहनत करने वाले तो अपने काम के नाम से पहचाने जाते थे पर निठल्लों का क्या उपनाम हो? ये एक बड़ी परेशानी का सबब बन गया. पंचायत बैठी, किसी ने सुझाया कि इन निठल्लों को इनके बाप का नाम दो. पर किसी ने आपत्ति जताते हुए कहा कि उनका क्या जिनके पिता ने उन्हें निठल्लेपन के कारण अपनी संतान मानने से इनकार कर दिया है?बड़ी समस्या थी. सरपंच ने फैसला सुनाया कि या तो ये निठल्ले कोई काम अपना लें या फिर गाँव छोड़कर चले जाएं।
निठल्लों को दूसरा रास्ता अच्छा लगा. वे गाँव से निकल कर जंगलों में चले गए और शिकार करना तो आता नहीं था इसलिए कंदमूल खाकर अपना जीवयापन करने लगे। कोई दोहा गढ़ता तो कोई चौपाईयाँ सुनाता।उनका एक ही मंत्र था
"अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम
जंगल में कंदमूल भरा पड़ा है,खाओ सुबह शाम"

कुछ निठल्लों सोचना शुरू किया क्योंकि उनके पास समय बहुत था।कुछ ने जमीन पर लकीरें खींचना शुरू किया,इन निठल्लों ने भाषा,गणित और पता नहीं क्या क्या फालतू चीजों की खोज की. अपनी सोच को इन्होने पत्तों में लिखना शुरू किया,और अपने बच्चों को सिखाने लगे। निठल्लों ने खाली समय में हस्तलिखित पत्तों के भण्डार जमा कर लिए जिन्हें वो पोथी कहने लगे। निठल्लों के सरनेम अब पोथी निर्दिष्ट हो गए थे।

उदाहरण- एक पोथी रटने वाला-पोथी
दो पोथी रटने वाला-द्विपोथी
तीन पोथी रटने वाला-त्रिपोथी
चार पोथी रटने वाला-चतुर्पोथी
जो पोथी न रट पाए, वे अपने बाप का नाम उपनाम की जगह लगाते गए होंगे।


खैर, बाहर की दुनिया बदल रही थी,गाँव अब शहर बन चुके होंगे और सामंतवाद चरम पर पहुँच गया होगा. पंचायती राज ख़त्म हो गया था और प्रशासन केंद्रीकृत होकर एक व्यक्ति के हाथ में चला गया था जिसे राजा कहते थे। लोगों के पास अफरात माल जमा हो गया था पर दिन भर मेहनत करते रहने के कारण मन की शांति नहीं रही होगी. चारों तरफ अशांति का बोलबाला हो गया. राज दरबार में भी अशांति थी, क्योंकि ऊटपटांग खाते रहने के कारण रानियों को अपच की बीमारी हो गयी थी. राजमहल भी महामारियों का जन्मस्थान बन गया होगा।
इधर निठल्लों का भी भोजन समाप्ति की कगार पर होगा, क्योंकि उनकी जनसंख्या काफी बढ़ चुकी थी।ऐसे में किसी निठल्ले ने सुझाया कि चलो अब जंगल से बाहर चलते हैं भिक्षा मांग कर अपना जीवन यापन करेंगे. निठल्ले ना सिर्फ बाहर निकले बल्कि उन्होने राजदरबारों में अपनी धाक भी जमा ली. पर ये सब हुआ कैसे होगा? शायद ये कुछ इस तरह हुआ होगा:



निठल्ले बाहर आये तो उन्होने देखा की चारों ओर अफरातफरी का माहौल है। ये देख कर निठल्लों के कलेजे में ठंड पड़ गयी होगी,कुछ दौड़ते सैनिको को देखकर एक निठल्ले ने पूछा कि "भाई क्या हुआ? कहाँ भागे जा रहे हो?"बदहवास सैनिक ने कहा कि महाराजाधिराज की पटरानी को जबरदस्त लूज़मोशन हो रहे हैं, हम ऐसे व्यक्ति को ढूँढ रहे हैं जो उन्हें इससे निजात दिला सके. उस व्यक्ति को राजमहल का विशेष अतिथि बनाकर ताउम्र रखा जायेगा।" अंधे के हाथ जैसे लग गयी बटेर,निठल्लों को जंगल में रहते रहते औषधियों का थोडा बहुत ज्ञान तो हो ही गया था, उन्होने फौरन जाकर रानी को वो औषधि दी होगी और रानी के ठीक होते ही उनकी महल में धाक जम गयी होगी। कुछ समय बाद तो वे राजा के आधिकारिक "साले" की तरह व्यवहार करने लगे होंगे. कुछ समय बाद राजा राजकाज में भी उनकी सलाह लेने लगा होगा। अब तो निठल्लों की हो गयी ऐश. सैय्याँ भये कोतवाल अब डर काहे का।

निठल्ले जानते थे कि यदि उन्होने अपना ज्ञान बांटा तो उनकी पूछ ख़त्म हो जायेगी,और वे मेहनतियों के द्वारा की गयी बेइज्जती और गाँवनिकाला के बाद की पीडा को भूले नहीं थे। इसलिए उन्होने ठान लिया कि उनका ज्ञान किसी को नहीं मिलेगा।
अब समाज चार वर्गों में बाँट गया था:
सबसे ऊपर का वर्ग था निठल्लों का
फिर निठल्लों के रक्षक जिसमे राजा और सैनिक शामिल थे.
फिर निठल्लों के अधीन व्यापारी,सप्लायर्स।
और अन्तिम वर्ग था मेहनतियों का।

तब से लेकर आजतक सरनेम ज्यों के त्यों हैं। पर सरनेम अब वंशानुगत रह गए हों ये पूरी तरह से सच भी नहीं है। सरनेम की वंशावली को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं:

(१) डर - डर सबको लगता है,फूलनदेवी के डर से चम्बल के कितने ठाकुरों ने सरनेम बदल लिए। ठाकुरों के डर से कितनी फूलनदेवीयों ने अपने सरनेम बदल लिए.

(२) दंगे फसाद - दंगे फसादों में अच्छे अच्छों के सरनेम बदल जाते हैं,दंगे फसादों में सरनेम बदलकर लोग आपसी प्रेम का प्रदर्शन करते हैं।

(3) क्रांतियाँ - जब समुद्र की तलहटी में ज्वालामुखी फटता है, तो समुद्र तल के पानी का भी रंग बदल जाता है।

(४)स्वार्थ - कई लोग स्वार्थ में सरनेम बदल लेते हैं।उदाहरण के तौर पर- नौकरी लगने तक गोंड थे,नौकरी लगने के बाद गौड़ हुए और राजनीति में आने मिला तो गौर हो गए.कुछ लोग फर्जी जाती प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सरनेम बदल लेते हैं।

(५)आत्मविश्वास की कमी - इस कारण से सरनेम बदलने के तो लाखों उदाहरण मिलते हैं, लोग तो अपने सहकर्मी, सहपाठियों से भी असली सरनेम छुपा जाते हैं।

(६)लालच - कई बार जब दूसरे व्यक्ति से काम निकलवाना होता है, तब हम उसका सरनेम परिवर्तित करके उसे बराबरी का एहसास दिलाते हैं।उदाहरण - मध्यप्रदेश में जूते सिलवाते वक़्त चर्मकार को "चौधरी जी" कहकर संबोधित किया जाता है. खेतिहर मजदूर आदिवासियों को खेत में काम करवाते वक़्त "ठाकुर साहब" कहने का भी प्रचलन यहाँ पर है. ये अलग बात है कि जब पैसा देने की बारी आती है, तो "ठाकुर साहब" और "चौधरी जी" को उनके असली उपनामों से पुकारकर उनकी असली औकात भी याद दिला दी जाती है।( ये मध्यप्रदेश का ट्रेड सीक्रेट है)

सरनेम में पदोन्नति या सर्नेम्मोनती जैसा कोई प्रावधान नहीं है। "सरनेम सुधार आन्दोलन" जैसा कोई आन्दोलन भी अभी तक अस्तित्व नहीं ले सका है, ये शायद इसलिए, क्योंकि एक का "सरनेम सुधार आन्दोलन" दूसरे को "सरनेम बिगाड़ आन्दोलन" प्रतीत हो सकता है।हालांकि बीच में कुछ हड़ताली डॉक्टरों ने सुझाव दिया था कि सबका सरनेम एक कर दिया जाए। आजकल के डॉक्टरों से ऐसे ही बेवकूफाना सुझावों की उम्मीद रहती है। अरे,,, "सबका मालिक एक" नहीं हो पाया अब तक, सबका सरनेम कहाँ से एक हो जायेगा।

Jan 30, 2008

कौन कहता है कि भारतीय नस्लवादी नहीं होते?

सबसे पहले तो आजादी के ५० साल बाद नस्लवाद शब्द को भारत मे प्रसिद्ध करने के लिए सायमंड्स और हरभजन का कोटि कोटि धन्यवाद। सायमंड्स हरभजन पर आरोप लगा कर उसे मनमाफिक सजा तो ना दिलवा पाए , पर एक बढिया काम जरूर किया है कि आम भारतीय को आईने मे झाँककर ये पूछने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम नस्लवादी हैं?

मैंने आईने से तो नहीं पर एक मित्र से पूछा कि क्या हम नस्लवादी हैं??उसने कहा "चल बे, सायमंड्स अपन से ज्यादा गोरा है यही नहीं वो तो फिरोज खान के बच्चों और बाराबंकी महिला महाविद्यालय की मालकिन से भी ज्यादा गोरा है, हम उसपे क्या ख़ाक टिपण्णी करेंगे ।"पर सवाल तो ये उठता है कि क्या एक काला आदमी एक अपेक्षाकृत गोरे व्यक्ति पर टिपण्णी नहीं कर सकता? मुझे तो लगता है कि कर सकता है। काले लोगों का ग्रुप बनाओ और रोज एक गोरे आदमी को पकड़ कर खूब चिढाओ, आप उससे उसके रंग का कारण पूछो, उसके खानदान तक पहुंच जाओ। न सातवे दिन वो पुलिस मे रिपोर्ट कर दे तो नाम बदल देना।

भारत मे सदियों से गोरे रंग को स्टेटस सिम्बल माना जाता रहा, आर्य द्रविड़ का खेल तो सबको याद ही होगा।हजारों साल तक ये नाटक चलता रहा।पर परेशानी तो तब हो गयी जब २०० साल पहले हमसे भी ज्यादा गोरे लोगों ने इस धरती पर कदम रखा।जब हमने उनका गौरवर्ण और कदकाठी देखी तो हम चकित रह गए। वो बिल्कुल वैसे ही थे जैसा कि धर्मग्रंथों मे लिखा था, यही नहीं हमारे कुछ बेवकूफ पूर्वज तो २०० साल तक उन्हें देवता समझ कर उनके आदेश बजाते रहे। रात दिन चेहरे पर फेयर ऎंड लवली मलने वाले, गोरी लड़कियों के ख्वाब देखने वाले, सांवली को मुँह पर रिजेक्ट करने वाले, हम लोग नस्लभेदी कैसे हो सकते हैं? हाँ रंगभेदी कहो तो बात अलग है।

भारत मे तो लोग बस प्यार करना जानते हैं, और प्यार दिखाने में हम लोग कभी झिझकते नहीं,हमारा प्यार कुछ कुछ साल बाद अचानक बहुत ज्यादा उमड़ता है ।और इतना उमड़ता है कि दिल्ली से भागलपुर तक,गुवाहाटी से गोधरा तक लोग उस प्यार को महसूस कर पाते हैं। अब हमारे शहर को ही लीजिये, हमारे शहर में पूर्वोत्तर राज्यों से कुछ लोग आते हैं कभी पढ़ने तो कभी कुछ काम करने।अब भाई उनके लिए जाने अनजाने किसी किसी के मुँह से नेपाली या चीनी निकल जाता है।कुछ दक्षिण भारतीय लोग फैक्टरियों में नौकरी करने के लिए आते हैं तो लोग उन्हें प्यार से करिया,कलूटा,कलवा,कल्बिलवा,कालू कह देते हैं। अब भारत के लोग हैं, तो ये सारे नाम प्यार से ही देते होंगे ना।अब अगर इससे भी कोई नाराज हो जाये, तो वो जाने उसका काम जाने।
अच्छा ये बताओ कि पंजाबियों का दिमाग घुटने में होता है, मराठी कंजूस होते हैं, बंगाली डरपोक होते हैं,बिहारी गुंडे होते हैं,कश्मीरी आतंकवादी होते हैं। ये सब क्या है? अरे पगले इंसान ये तो क्षेत्रवाद है,अजीब पागल हो यार!हर चीज को नस्लवाद बोलते हो!

भारतीय आपस मे ही इतना प्यार करते हैं कि क्या बताएं। कुएँ से पानी भर लेने पर जहाँ नीची जाति वालों की औरतों बेटियों का सामुहिक बलात्कार कर दिया जाता है, मंदिर मे प्रवेश करने जहाँ गाँव के गाँव जला दिए जाते हैं उस देश को आप जातिवादी कहलो भाई पर आप तो नस्लवादी का तमगा दे रहे हो वो तो सरासर गलत है।

हमारे देश मे लड़कियों को दहेज़ के लिए जिंदा जलाया जाता है, कितनों का बलात्कार तो जान पहचान वाले और रिश्तेदार ही कर डालते हैं, लड़की को या तो गर्भ मे मार दिया जाता है और अगर कहीं धोखे से पैदा हो गयी तो कुत्तों को खिलाने के लिए झाडी मे फेंक देते हैं। हाँ तो मान रहे हैं ना, कि ये सब होता है। हमने इस बात को मानने से कभी इनकार किया क्या?हम तो सीना ठोंक कर कहते हैं कि हाँ हम लिंगभेदी हैं ,कम से कम दूसरों की तरह नस्लभेदी तो नहीं हैं।

सायमंड्स मुझसे कह रहे थे कि उन्हें बिग मंकी कहलाना पसंद नहीं। मैनें उनसे कहा कि बंधू आप तो इतने मे ही गुस्सा हो गए, डार्विन को तो पोप ने बन्दर घोषित कर दिया था। हरभजन ने आपको बड़ा बन्दर कहा था तो आप उसे छोटा बन्दर कह देते, उच्छल कूद तो वो भी मचाता है । सायमंड्स बोले कि हाँ मैं तो यही बोलना चाहता था, पर पोंटिंग ने कहा कि "साले अपनी तो भद्द पिटवाओगे और साथ मे मेरी भी,तुम तो हो ही वेस्टइंडीज की पैदाईश और वो इंडिया का, तुम दोनो तो बन्दर ही हो, पर कल तुम्हारे चक्कर मे मुझे कोई मंझला बन्दर बोलने लगा तो?" इस कारण मुझे शिक़ायत करनी पड़ी। खैर मैंने सायमंड्स को समझा दिया है कि भारतीय रंगभेदी हो सकते हैं,क्षेत्रवादी हो सकते हैं , जातिवादी हो सकते हैं, लिंगभेदी हो सकते हैं पर नस्लभेदी,,,,कभी नहीं।

ऐसा जवाब दिया सायमंड्स को कि वो मुझे देखता ही रह गया।फिर उठा और फिर, ऐसा कुछ बोला "ब्लडी रेसिस्ट इंडियन",मुझे पता था कि वो मेरी तारीफ करके गया है,मेरा सीना गर्व से फूल कर हेडन जैसा हो गया।पढ़ने वालों से अनुरोध है कि नयी बनियान जरूर ले लें।

Jan 28, 2008

भारतीय शिक्षा - उद्यम या उद्योग

विचार का दीपक बुझ जाने पर चरित्र अँधा हो जाता है। अच्छी शिक्षा मनुष्य मे अच्छे विचार पैदा करती है। शिक्षा का ध्येय ही चरित्र निर्माण होता है।मनुष्य की आंतरिक सुन्दरता को सिर्फ और सिर्फ अच्छी शिक्षा से उजागर किया जा सकता है।अच्छी शिक्षा व्यवस्था किसी भी राष्ट्र के विकास की रीढ़ होती है। संसाधनों की उपलब्धता,प्रतिव्यक्ति आय या रहन सहन से किसी भी राष्ट्र के विकास का मापन संभव नहीं है जब तक कि इसमे चिकित्सा और शिक्षा जैसे मूलभूत तत्वों को शामिल न किया जाये।

"भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान की धरती माना जाता रहा है। नालंदा और तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों मे विश्व भर के प्रबुद्ध छात्र अपने ज्ञान को निखारने के लिए आते रहे।भारत ने विश्व को समय समय पर चोटी के विद्वान् दिए।"ये सब अब पुरानी बातें हो गयी हैं। ये " दिल को बहलाने के लिए ख़याल अच्छा है गालिब" वाली बातें हैं।भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से बीमारू हालत मे है,और यही सच है। भले ही ये कितना ही कड़वा क्यों न हो। कब तक मैं और आप चरक,चाणक्य,आर्यभट्ट का नाम गा गाकर खुद को बेवकूफ बनाते रहेंगे। सच्चाई हम सब जानते हैं, ये अलग बात है कि हम आत्मसंतुष्टि के लिए आँखें मूँद कर पूर्वजों के ज्ञान का गुणगान करते रहते हैं और भविष्य की पीढ़ी के साथ हो रहे खिलवाड़ से अनजान बने रहते हैं।

"रटंत ज्ञान" की परम्परा तो हमारे देश मे सदियों से रही है। यही सदियों तक "पांडित्य" या "विद्वत्ता" की परिभाषा बनी रही। ये तब तक तो ठीक था जब तक हम घर से बाहर नहीं निकलते थे, श्लोकों सूक्तियों को रटकर फूले नहीं समाते थे , और उथले ज्ञान मे गौरव महसूस करते रहे। पर आज हमारी प्रतियोगिता सारे विश्व से है, और ज्ञानवान होने की ग़लतफ़हमी हमे भारी पड़ सकती है।

भारत मे सरकारों ने भी शिक्षा को हमेशा नजरअंदाज किया है।तमाम लंबे चौड़े दावों के बावजूद न तो इसे सर्वसुलभ बना पाए हैं और न ही इसे मानवीय स्पर्श दे पाए हैं।पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के ४२ हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। जब बैठने तक के लिए भवन नहीं हैं तो सीखने-सिखाने के अन्य उपकरणों और शेष शैक्षिक प्रक्रियाओं की बात करना ही बेमानी है।अमेरिका मे कुल बजट का १९.९ %, जापान मे १९.६%, इंग्लैंड मे १३.९% शिक्षा पर खर्च किया जाता है। अफसोसजनक है कि भारत मे शिक्षा पर बजट का मात्र ६ प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है, और खुद को भविष्य की महाशक्ति कहा जाता है।

राज्य सरकारों के पास तो शिक्षकों को वेतन देने तक के लिए पैसा नहीं निकलता, ये दीगर बात है की फीलगुड जैसे राजनीतिक प्रचारों मे अरबों रुपयों का जो चूना लगता है वो भारत के आम नागरिक की जेब से ही जाता है। शिक्षकों से पढाने के अलावा बाक़ी सभी काम लिए जाते हैं, फिर वो चुनाव ड्यूटी हो या पल्स पोलियो।शिक्षक को शिक्षाकर्मी, गुरुजी और शिक्षामित्र बना कर राज्य सरकारों ने, शिक्षकों के लिए जनता के मन मे जो रहा सहा आदर भाव था वो भी ख़त्म कर दिया। हर राज्य से इन ठेके के शिक्षकों के पिटने की खबर आती रहती हैं।

मध्यान्ह भोजन के नाम पर भी लोग धांधली करने से नहीं हिचकते। देहातों मे मध्यान्ह भोजन मे कीडे मकोडे मिलना तो आम बात हैं, किसी किसी राज्य मे तो जैसे मध्यान्ह भोजन योजना सड़े गले अनाज के निपटारण का तरीका बन गया हो।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत मे स्कूल जाने वालों मे ४० % बच्चे अंडरवेट होते हैं, और ४२% कुपोषण के शिकार। ये आंकडे मध्यान्ह भोजन और आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं की पोल खोने के लिए काफी हैं।

भारत में उच्च शिक्षा की हालत भी कोई ख़ास नहीं है।भारत में ९२७८ महाविद्यालय और २६० विश्वविद्यालय हैं। पर अभी भी हम उच्च शिक्षा के वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में अक्षम हैं।विश्वविद्यालयों में निर्रुद्देश्य हड़ताल,कक्षाओं का बहिष्कार, शिक्षकों से दुर्व्यवहार और छात्राओं से छेड़खानी की घटनाओं ने भारतीय उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण के कारण बढ़ती अनुशासनहीनता का स्याह रूप दिखाया है। आधे से ज्यादा विश्वविद्यालय आर्थिक बदहाली से जूझ रहे हैं।विज्ञान और तकनीकी महाविद्यालयों में प्रायोगिक शिक्षा और शोध के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है।

मीडिया और सरकार दोनों आईआईटी और आईआईएम् की चकाचौंध से इतने अंधे हो गए हैं कि उनका इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं जाता कि क्यों देश के ६३% बच्चे १०वी कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं, या इस बात पर कि जो शिक्षक स्कूली स्तर पर पढा रहे हैं वे उस लायक हैं भी या नहीं। आपकी नींव ही कमजोर है और आप एक उच्चवर्गीय सतही शिक्षा के विकास का ढोल पीट रहे हों तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।

प्रतियोगी परीक्षाओं में पास कराने के नाम पर कोचिंग संस्थान अपना धंधा जिस तरह फैला रहे हैं उससे तो यही लगता है कि कुछ समय बाद इस देश में कोचिंग सेंटरों की संख्या स्कूलों और कॉलेजों से भी ज्यादा हो जायेगी।

ये जो थोक के भाव प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं उनकी भी सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गयी है।यहाँ किसी मानक का ध्यान नहीं रखा जाता। PET और PMT में जो छात्र पास नहीं हो पाते वे यहाँ मोटी फीस चूका कर भविष्य के डॉक्टर और इंजिनियर बनते हैं। कई प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के पास तो खुद की लैब भी नहीं होती।अब ऐसे कोलेजों के कारण जो झोलाछाप डॉक्टर और कबाडी इंजीनियरों की पैदावार बढ़ी है ,उसमे कोई आश्चर्य नहीं।

अचरज की बात तो ये है कि जब आरक्षण की बात आती है तो प्रतिभा का राग अलापकर देशभर में विरोध किया जाता है और पूरा देश गरीब आरक्षित श्रेणी के छात्रों की प्रतिभा पर अचानक ही शक करने लगता है, पर इन प्राइवेट कॉलेजों से निकलने वाली "तथाकथित प्रतिभाओं" पर किसी को लेशमात्र भी एतराज नहीं होता। अब इसका कारण जो भी हो,पर यह बात सोचने पर मजबूर करती है।



जहाँ भारत की अर्थव्यवस्था विद्या का पलायन रोकने में अक्षम है, वहीं भारत की शिक्षा रोजगार दिलाने में। ऐसे में ये भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि शिक्षा के क्षेत्र के ऊपर ज्यादा ध्यान दिया जाए, सीधे शब्दों में कहूँ तो ज्यादा आर्थिक ध्यान दिया जाए।राज्य सरकार भी अपना उत्तरदायित्व समझें और शिक्षकों को शिक्षक ही रहने दें, शिक्षा मजदूर (शिक्षाकर्मी) न बनाएं।

चीनी विद्वान कंफ्युशिअस ने १००० साल पहले एक बात कही थी कि " अगर तुम १ साल आगे का सोचते हो तो चावल बोना शुरू करो, १० साल बाद के लिए सोचते हो तो पेड़ लगाओ,,अगर तुम्हारी सोच १०० साल आगे की है तो बेहतर होगा कि लोगों को शिक्षित करो।" मैं आशा करता हूँ कि ये बात सब के कानो तक पहुँचेगी और दिमाग तक भी ।

Jan 23, 2008

एक मोहल्ले की कहानी

१४-१५ साल पहले ईंटों का जो जमावड़ा लगा था, वो आदमकद "बाउंड्रीवाल" बन चुका है। कंक्रीट के जंगलों ने जो मैदान खा लिए थे ,अब बहुमंजिला की छत पर कभी कभी दिखाई देते हैं। बाउंड्री है,ताकि पडोसी घर की कलह देख न सकें, ताकि बच्चों के प्रतिशत कम न हों, ताकि नयी गाड़ी पर नज़र न लगे,ताकि बाहर खेलते बच्चों की गेंद घर में न घुस सके। कहीं घर से ऊंची बाउंड्री है, कहीं बाउंड्री में ही घर है। बाउंड्री और गेट से हैसियत का अंदाजा लगाया जाने लगा है, इतनी ऊँचाई रखी जाती है ताकि आने वाले को ओछेपन का एहसास कराया जा सके और मन मे खौफ पैदा हो । दीवारों से मन नहीं भरा तो ऊपर नुकीले भाले लगा दिए।भीतर का आदमी कूपमंडूकता मे गर्व महसूस करने लगा है।

खेलने कूदने की जगह तो पहले ही खप गयी थी, गिरने पड़ने की जगह भी छिन गयी,बचपन बिना चोटों के गुजरता है,घर आने पर मार भी नहीं पड़ती। रंग बिरंगी बैंडेज खरीदने का इकलौता बहाना भी छिन गया।
अंग्रेजी मे जैसे सारे बच्चों को बिना किसी भेदभाव के चाइल्ड कहते हैं, पहले मोहल्ले के बच्चे भी चाइल्ड ही होते थे। लड़के लड़की साथ मिलकर गेंद-पिट्टू ,लुका-छिपी, भौंरा-लट्टू खेलते थे, थोडा बडे होने पर अन्ताक्षरी के दौर चलते थे। अब बच्चे बडे ही पैदा होने लगे हैं, माँ बाप लड़कियों को बाहर नहीं खेलने देते,कहते हैं ज़माना खराब है। किसी का भरोसा नहीं रह गया है।मोहल्ले का चाइल्ड अब बाबा और बेबी बन गया है।कागज़ के जहाज अब पुरानी बात हो गए हैं।
मोहल्ला अब खेलता नहीं, मोहल्ला जड़ हो गया है। कभी कभी छत से नीचे झाँक कर दौड़ते बच्चों को देखता है, मन करता है , पर ट्यूशन का समय हो गया है।

टी वी कहानी घर घर की हो गया है, दादियाँ 200 साल की हो गयी हैं, आदर्श बहुएँ औसतन ५ पति बदल रही हैं । आदर्श शब्द के मापदंड बदल चुके हैं। "एक चिडिया अनेक चिडिया, दाना चुगने बैठी थी" जैसे गाने नहीं सुनाई देते,किले का रहस्य अब किसी को नहीं जानना। करमचंद और किटी गुज़रे जमाने कि बात हो गए हैं क्योंकि शायद वे पूरे कपडे पहनते हैं। राधा शायद काफ़ी शॉप मे मोगली का इंतज़ार कर रही है। "मिले सुर मेरा तुम्हारा" की जगह वंदे मातरम् के नए रीमिक्स आये हैं। मालगुडी के लेखक कब के मर गए। मोहल्ला अब रविवार को चित्रहार और महाभारत देखने के लिए नहीं दौड़ता, मोहल्ला अब खुद टी वी वाला हो गया है।

मोहल्ला अब बड़ा हो गया है। भद्र लोगों ने इसका नाम सोसाईटी रखा है। ये अब भी शाम की चाय एक साथ पीता है, पर तब ,जब सोसाइटी का गटर चोक हो जाता है या बिल्डिंग मे नए लोग आने से कार पार्किंग मे दिक्कत आने लगती है।मोहल्ला अब समस्याओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गया है।
यह पहले की तरह ठहाके लगाकर नहीं हँसता, ये हलके से मुस्कुराता है. मोहल्ला भद्र हो चला है,चोरों से डरता है और चौकीदार पर बेवजह चिल्लाता है ।

रिश्ते बदल गए हैं ,पडोसी अब अंकल आंटी हो गए हैं। उनकी बेटियाँ अब राखी नहीं बांधती हैं।नमस्ते नहीं होती है, बस गर्दनें हिलाई जाती हैं । सिवैयों और बताशों के मोहल्ले अलग अलग हो गए हैं, मोहल्ले शक्की हो गए हैं, साम्प्रदायिक हो गए हैं।अब पडोसी के यहाँ की शादी मे कोई हाथ नहीं बंटाता है,मौत पर शोक नहीं मनाता है,शायद मोहल्ले की संवेदनशीलता को लकवा मार गया है ।

मोहल्ला अब मर चुका है, बल्कि उसकी तो तेरहवीं भी खाई जा चुकी है। ये कौन सी बरसी है याद भी नहीं,किसी ने भी मोहल्ले की कभी खबर तक नहीं ली, हमने बहुत देर कर दी।

Jan 18, 2008

यहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ?

एक हादसे का चश्मदीद बन कर चला आ रहा हूँ, एक बडे घर के होनहार बालक ने अपनी तेज बाईक के दंभ मे एक गरीब रिक्शे वाले को लहुलुहान कर दिया। मेरे शहर मे तेज रफ़्तार गाड़ियों से होने वाले हादसे आम बात हैं, यूं कहिये कि ये हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा बन गया है। हमने बिना हाथ दिए मुड जाने वाली स्कूटियों के कारण बाईकों को पिटते देखा है, पर आज जो हुआ वो अपने आप मे खास था। जो जनता किसी ब्रेड चुराने वाले पर कहर बन कर टूटती है वही आज सहिष्णुता की मिसाल बन गयी। बाईक चालक को "सिर्फ" समझायिश दी गयी। शायद ये इसलिए, क्योंकि जो गिरा, जिसे चोट आयी वो उस तबके का था जिसकी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो चुकी है। बाईक चालक की हैसियत ने भीड़ के मुँह पर ताला जड़ दिया था और हाथ पैरों में बेडिया डाल दी थी।

ये घटना देखकर मुझे गुवाहाटी (असम) में हुई उस घटना कि याद बरबस ही हो आयी ,जिसमें आरक्षण मांगने जा रहे आदिवासियों को बर्बरता से पीटा गया। १४-१५ साल के बच्चों को "सवर्णों" की भीड़ ने निर्दयता से इतना मारा कि "सरकारी आंकडों" को भी ३ मौतें दर्ज करनी पड़ी। उनका कुसूर सिर्फ इतना था कि वे उस राज्य में आरक्षण मांगने निकले थे जहाँ वे पुश्तों से मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे थे। भीड़ ने सब पर हाथ साफ किया, जिसे मौका मिला उसने अपनी ही तरह से, हाथ मे आये आदिवासियों की जोरदार पिटाई की। एक आदिवासी लड़की को पुलिस ने भीड़ के हाथों सौंप दिया ताकि दुशासनों की अधूरी तमन्नाएँ पूरी हो सकें।
हालांकि आदिवासी छात्रों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण तो नहीं मिला और न्याय की उम्मीद भी नहीं के बराबर है. हाँ, ये ज़रूर है कि नक्सलवादियों को नयी पौध तैयार करने मे अब ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।

वैसे "दलित की बेटी" ने भी मुख्यमन्त्री पद का भार संभालने के बाद दलितों को मुस्कुराने के कोई अवसर प्रदान नहीं किये हैं। सुना है कि मायावती सरकार ने "दलित अत्याचार अधिनियम" में संशोधन की पूरी तैयारी कर ली है। जिसके अनुसार अब हत्या और बलात्कार के अलावा बाक़ी सभी अपराधों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाएगा, यानी कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग खुलेआम होगा और पढे लिखे दलितों को नीचा दिखाने के लिए उनके पारिवारिक व्यवसाय के नाम से उन्हें संबोधित करना अब और भी आसान हो जाएगा। उत्तरप्रदेश सरकार के अनुसार इस कानून का दुरूपयोग रोकने के लिए ऐसा किया जा रहा है। मुझे तो अब महिलाओं की भी चिंता हो रही है, कहीं दहेज़ विरोधी,तलाक सम्बन्धी और बलात्कार के कानूनों को भी तथाकथित "दुरुपयोगों" के कारण ख़त्म न कर दिया जाए। हालांकि इसके खिलाफ कुछ पढे-लिखे दलितों ने लामबंदी की है और याचिका भी दायर की है,यह शिक्षित समाज ही कुछ उम्मीदें जगाता है।
वैसे इसमें "दलित की बेटी" का दोष नहीं है, जब से उन्होने "सामाजिक-यांत्रिकी" के बल पर चुनाव जीता है, वे "समाज " की दत्तक पुत्री हो गयी हैं और उन्होने यह जान लिया है कि लोकतंत्र में "पैदा करने वाले से" ज्यादा अधिकार "पालने वाले" का होता है। वे तो सिर्फ पालकों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए ऐसा कर रही हैं।

वैसे दोष तो रेनुका चौधरी का भी नहीं है, वे भी मुम्बई में नववर्ष के उपलक्ष्य में हुए कुकृत्य कि जांच के लिए उत्सुक हैं।परन्तु शायद उनतक भी गुवाहाटी की आदिवासी छात्रा की चीख नहीं पहुँच सकी, क्योंकि "मीडिया" भी शायद उस चीरहरण का वीडियो mute करके देख रहा था। अब तो लगता है कि पशु-अधिकार के लिए जूझने वाले संगठन , मानवाधिकार वाले संगठनों की बनिस्बत ज्यादा कुशलता और ईमानदारी से काम करते हैं।

Jan 15, 2008

जन्मदिन

१४ जनवरी १९८५, ये दिन मेरे परिवार के लिए बहुत ही खास था। वैसे मेरा जन्मदिन बहुत से लोगो के लिए खास होता है। कल मेरा २३ वां जन्मदिन था, मैं इसे सादगी के साथ मनाना चाहता था क्योंकि अब मैं एक बच्चा नहीं रहा , बड़ा और बेरोजगार हो चुका हूँ। पर मेरे पिछले २२ जन्मदिनों ने शायद "पार्टी" के कुछ ऐसे मानदंड स्थापित कर दिए हैं जिन्हें अब सादगी की ओर मोड़ पाना अब संभव नहीं दिखता। मेरा जन्मदिन,वह भी बिना किसी treat या party के अब तो कतई संभव नहीं है, यह बहुत लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरने जैसा होगा।हालांकि कल मैंने अपना २३ वा जन्मदिन साधारण रखने की पुरजोर कोशिश जरूर की है, और मैं इसमे शायद कुछ हद तक सफल भी रहा हूँ।

वैसे मेरे जन्मदिन पर मायावती के जन्मदिन की तरह कोई भव्य राज्यव्यापी रैली तो नहीं निकलती, ना ही सोनिया गाँधी के जन्मदिन की तरह घर के बाहर टिकट मांगने वालो की भीड़ लगती है। मेरा हर जन्मदिन दोस्तो और परिवार के साथ ही बीतता है।

जन्मदिवस के साथ साथ बहुत सारी भ्रान्तियाँ भी जुडी होती हैं, कल ही कोई मुझसे कह रह था की जनवरी में प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोग जन्म लेते हैं,वैसे एक बात बता दूँ कि प्रसिद्ध और कुख्यात मे अंतर बहुत कम लोगो को पता होता है, साथ ही शक्ति के भी कई मायने होते हैं . मेरे उस मित्र ने फिर मुझे जनवरी मे जन्म लेने वाले प्रसिद्ध हस्तियों के नाम गिनाकर मुझे convince करने का प्रयास किया। मैंने उसकी बातो से प्रभावित होकर जब इंटरनेट पर खोजबीन की तो सद्दाम हुस्सैन, मुहम्मद अली, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस,एल्विस प्रेस्ली,लुईस ब्रेल,जोन ऑफ़ आर्क, जोए फ्रेजिअर,मार्टिन लूथर किंग जूनियर,बेंजामिन फ्रैंकलिन,फ्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट, जिम कैरी जैसे नाम जनवरी की पैदाईश सूची मे पाए। ये खोज मुझे उत्साहित कर रही थी और इतने सारी प्रसिद्ध हस्तियों का नाम मेरे जन्म माह मे पाकर मेरा मन कपडे उतार कर Eureka Eureka चिल्लाने और सडको पर दौड़ने का हो पाता उससे पहले ही मेरे चेतन मन ने मुझे अन्य माहों मे पैदा हुए लोगों के नाम ढूँढने के लिए कहा, फिर मैंने पाया अलग हर माह में प्रसिद्ध हस्तियों ने उसी तादाद में जन्म लिया है जितना कि जनवरी में। इस बात के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं कि या तो मैं खास इंसान नहीं हूँ और जनवरी मे पैदा हुए अनेको गुमनाम लोगों कि तरह इस भीड़ का हिस्सा बन जाऊंगा,या फिर ये कि हर वह व्यक्ति जो इस धरती पर जन्म लेता है वह खास होता है बस ज़रूरत होती है कि वह अपनी क्षमताओं और कमियों को पहचाने,अपने लक्ष्य निर्धारित करे और उन्हें पाने के प्रयास जारी रखे,ताकि वो औरों कि तरह गुमनाम न हो जाये।

जन्मदिवस का राशियों के साथ भी महत्वपूर्ण संबंध है और राशियों का भविष्य से ,ऐसा कुछ लोग मानते हैं (या कहें कि बहुत से लोग मानते हैं)। पर जहाँ तक मैंने २३ साल कि उम्र तक जो भी observe किया है ,यह पाया है कि भिन्न भिन्न लोगों के राशिफल प्रायः प्रायः एक समान ही होते हैं और उनमे थोडा बहुत फेर बदल करके लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता है ताकि हज़ारों लोगों को सपने बेचे जाएँ और चंद लोगों कि कमाई का ज़रिया सदैव बना रहे। वैसे राशी, रत्नों, कुंडलियों, तावीजों, झाड़ फूँक इत्यादी का ये खेल बहुत पुराना है और मनुष्य के अंधविश्वास की कोई सीमा न होने के कारण ये खेल अभी लम्बा चलेगा।

वैसे ऐसे भी लोग हैं जो जन्मदिन मनाना गलत मानते हैं, उनके अनुसार आप " उस दिन"को उत्सव की तरह मन रहे हो जो आपको धीरे धीरे मौत की तरफ ले जा रहा है, अब मुझे नहीं पता की आप इसे क्या कहेंगे पर मैं तो इसे pessimism की पराकाष्ठा कहूँगा। कुछ रूढिवादी मानसिकता के लोग जन्मदिन मनाने को भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी हमले की तरह देखते हैं, इसे क्या संज्ञा दी जाए? शायद इसे मानसिक दिवालियापन कहना ही ठीक होगा। केक काटते हुए या मोमबत्तियां फूंकते हुए बच्चे को न तो पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण भय होता है और ना ही मौत की तरफ बढ़ने का। उसके मन में जो हर्षोल्लास की अनुभूति होती है उसके सामने ये सारी बातें नगण्य और ओछी हो जाती हैं।

हाँ, जन्मदिवस को मनाने के तरीको पर ज़रूर बहस की जा सकती है, वैसे एक स्वतंत्र देश में सबको छूट है की वे जैसे चाहें अपना जन्मदिवस मन सकते हैं, बस आप जो भी करे वो आपको ख़ुशी दे और किसी को नुकसान न पहुचाए.

ये पृष्ठ यहीं समाप्त करता हूँ इसी उम्मीद के साथ कि आप और मैं भले ही जन्मदिन को कैसे भी celebrate करें,करें या न करें, कम से कम अपनेअपने जन्म के महत्व को ज़रूर समझें.