Feb 22, 2008

पांच त्रियाचरित्र पीड़ितों की आपबीती और बेटों का ब्लौग!

असफलता से सीखते नहीं, कभी न कभी हम सब, अपनी असफलताओं का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ देते हैं। पार्श्व मे काला परदा लगाकर ख़ुद को गोरा दिखाने की चाहत सब मे होती है। दूसरे को दोषी ठहराना कोलिन स्प्रे की तरह है जिससे हम अपना आईना साफ करने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। हर कोई अपनी असफलता की भडास दूसरे पर निकालता है, दोषारोपण प्रकृति का नियम है; नेता विपक्ष पर, अमीर गरीब पर, औरत मर्द पर, पावन पतित पर और सवर्ण दलित पर। अतीत के पन्ने खुलने पर जब कुछ हादसे और असफलताएँ मुंह बाए खड़े हो जाते हैं तो कुछ लोग दोष डाल देते हैं,,, त्रियाचरित्र पर।यहाँ प्रस्तुत है ऐसे ही ५ लोगों की आपबीती जिन्होंने खुद को त्रियाचरित्र-पीड़ित घोषित रखा है। ये वो लोग हैं जो सोचते हैं कि इंसान की असफलता अथवा इंसान के साथ जो भी क्रूर घटित होता है उसके पीछे एक औरत का हाथ होता है।

प्रथम दृश्य:
खाने की छुट्टी मे, क्लास मे बैठा हुआ एक
धीर गंभीर खिड़की से बाहर
बच्चों को खेलता,देखता हुआ एक।
चींटी धप्प खेलते हुए
कोई उसके पास आयी।
गौर से देख चेहरा उसका
चिडिया सी चाह्चाहायी
"एई, तुम्हारे गाल कितने फट गए हैं,
मम्मी चार्मिस नहीं लगाती क्या"
खिलखिलाहट के बीच
अपमान के घूँट पीता हुआ वो,
प्रतिशोध की ज्वाला लिए
ह्रदय मे, जीता हुआ वो।
झट से खडा हुआ और
उसके बालों में अपना हाथ फेरा,
अंगूठों के नाखूनों को उसके चेहरे के सामने लाया

और हौले से दबाया,
चट्ट की जो आवाज़ हुई अब वो खिलखिलाया
" एई, तुम्हारे सिर में कितने जुएँ हैं,
मम्मी मेडिकर नहीं लगाती क्या. "
प्रकृति का ये क्रूर मजाक
उस कन्या के लिए असहनीय था
वो अगले कालखंड तक रोती रही।
घडियाली अश्रुओं से शिक्षक को प्रभावित किया गया,
नन्ही परी की शिकायत पर
बालक को दानव घोषित किया गया.
बाहर घुटने लगाए वो आज भी सोचता है,
बदतमीजी की सजा उसे ही क्यों.

द्वितीय दृश्य :-
कड़ी धूप में घास छीलते हुए
सारी प्राकृतिक यातनाएं सहर्ष झेलते हुए
जब शरीर का सारा तरल सूख चूका था
तो जाने कितने ही, वालंटियर बना कर
जबरन रक्तदान शिविर में झोंक दिए गए
और ऐसे ही कितने मेहनतकश
सपनो के गले
रैंक परेड के दिन घोंट दिए गए.
कारण से सब अनभिज्ञ हैं, निराश परिणाम से
सोचते हैं पर कुछ सूझता नहीं
कहाँ कमी रह गयी
मेहनत में या चाटुकारिता में।
एक वरिष्ठ ने मुंह खोला
कहा तुम सब की कीमत पर
एक कामायनी,कोमलांगी चुन ली गयी हैं.
वे जिन्हें गाहे बगाहे
मैदान पर देख कर
सब आहें भरा करते थे,
जिनकी बंदूक कभी ना चली
क्योंकि उनसे मैगजीन लोड करते ही नहीं बनी,
पर उनका निशाना अचूक था
जिन्हें सूबेदार मेजर के साथ ठिठोली करते देखा गया
वे अब हमारी अंडर-ओफिसर बनेंगी।
निशाने निशाने का अंतर
जिस दिन समझ जाओगे
उनकी रैंक तुम पा जाओगे.
मिटटी से सम्पर्क के अभाव में
जिनकी युनिफोर्म हमेशा साफ रही
परफ्यूम से महकती वे,
पसीने से बिदकती वे,
उनसे तुम्हारी क्या तुलना है गधो
चलो ये लटके मुंह उठाओ
और जा के उन्हें सेल्यूट करो।

तृतीय दृश्य :-
जब परीक्षा के दिन कक्षा में आकर
कोई एक ही टेबल पर जाकर
ठिठक जाएं
और बड़े प्यार से पूछें
"पेपर कैसा आया"
तो कई मन एक साथ कह उठते हैं
"मास्साब, कभी हमसे भी पूछ लिया करो"

चतुर्थ दृश्य :-
साल भर प्रयोगशाला में खडे होकर
फार्मूलों और रासायनिक सूत्रों में उलझकर
कॉपी में खींची लाल लाल लकीरों को देखकर
भी इतनी खिन्नता नहीं होती
जितनी कि तब,जब
अन्तिम दिवस पर कोई मुस्कुराती हुई आये
आखिरी पृष्ठ पर हस्ताक्षर कराके
बगल में खड़ी हो जाए।
टीपे वो आपकी उत्तर पुस्तिका
और डांट आपको ही पिल जाए
वाइवा में आप को
आधे घंटे खडा रख
अभिक्रियाएं पूछी जाएं
और हलवा बनाने की विधि पूछकर
उनकी पीठ थपथपाई जाए।

अन्तिम दृश्य :-
नोटिस बोर्ड पर लटकी
जीभ चिढाती
जब पुनर्मूल्यांकन की पूरी सूची
"नो चेंज" से सजी हो
और एक विशेषाधिकार प्राप्त विशिष्टा के
२४ अंक बढ़ जाएं तो

परिश्रमियों का आत्मविश्वास
क्यों नहीं डगमगायेगा
साक्षरता का स्वप्न धरा रह जायेगा
भक्त भक्तिनी में भेद हो जहाँ
ऐसे विद्या मंदिरों में
कोई सच्चा उपासक भला क्यों जायेगा?

पाँचों को मेरा सुझाव :-

जो भेद देख आँखें ढांप सकें, वे लोग ही आगे बढ़ते हैं
ठहराव उनके लिए है, जो ऐसी कहानियां गढ़ते हैं।
त्रियाचरित्र है सिर फुटव्वल
सत्य है ये कि,
नारी पुरुष पर भारी
अगर जीना है सुकून से
तो बने रहो आभारी।


( आपस की बात : ये पाँचों कथित पीड़ित मेरे मित्र हैं और इन्होने मुझे "बेटियों का ब्लौग" की तर्ज पर "बेटों का ब्लौग" बनाने का सुझाव दिया है जिसमे ये लोग "त्रियाचरित्र-पीड़ितों" और "पुरुष लिंगभेद" की दुःखभरी दास्ताने पोस्ट कर सकें. पर मैंने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया है क्योंकि मुझे अभी और जीना है. मैं इन लोगों की सोच से इतने भय में जी रहा हूँ कि मैं इनसे दोस्ती कायम रखने के विषय पर भी पुनर्विचार करने जा रहा हूँ. )

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

रचनाएं अच्छी लगी।आप के विचार भी।सभी के अपने-अपने अनुभव होते हैं।इस विषय पर कुछ कहना सच मे ही मुश्किल होता है।

वनमानुष said...

तुकबंदियों की प्रशंसा के लिए धन्यवाद परमजीत जी, पर इन्हें मेरे विचार कहकर महिला संगठनों के हाथों मेरे पिटने का मार्ग प्रशस्त ना करें.आपने सही कहा "गृह मंत्रालय" से जुडे विषयों पर कुछ कहना सचमुच मुश्किल होता है. [:D]

Pramendra Pratap Singh said...

आपका हिन्दी ब्‍लाग में हार्दिक स्‍वागत है।, आप अच्छा लिखते है लिखते रहिऐ।

बधाई


अपने ब्‍लाग पर आपकी टिप्‍पणी देखी, अच्‍छे विचार लगे जब मै यह लिख रहा था तो मेरे मन में यह विचार आया था किन्तु मै रूढि़वादिता सभी धर्मो में है किन्तु मुस्लिम समाज की जो र्दुदशा है उनके लिये वह खुद ही जिम्‍मेदार है। आज क्‍या कारण है कि कहा जाता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य आज सम्पन्न है कारण स्प्‍ष्‍ट है कि जिन्होने 50 वर्षो से चली आ रही आराक्षण नीति के चलते जीवन जीने की कला सीख ली है किन्‍तु आज मुस्लिमों को लगता है कि वे आराक्षण के बल पर आपने आपको सम्‍पन्‍न बना लेगें तो यह ठीक नही है।

वनमानुष said...

यदि हर वर्ग ने आरक्षण के सापेक्ष जीने की कला सीख ली होती तो आरक्षण का इतना विरोध क्यों होता? वैसे हम शायद जनसंख्या वृद्धि के कारणों पर चर्चा कर रहे थे. :)