Feb 3, 2008

डहरिया सर का थप्पड़

नवोदय विद्यालय में हमारे एक संगीत शिक्षक हुआ करते थे श्री रवि शंकर डहरिया। लंबे चौड़े ,सांवले, पान के शौकीन,संगीत के विद्वान डहरिया सर। जब ६ वीं कक्षा में हमारा एडमिशन हुआ तो पहले पहल हम लोग डहरिया सर को देख कर कांप जाते थे। नवोदय विद्यालय समिति में भी उनका काफी रुतबा था। नवोदय प्रार्थनाओं को संगीतबद्ध करने की जिम्मेवारी उन्हें ही दी जाती थी। समिति का सारे देश में कहीं भी आयोजन होता, तो डहरिया सर को कार्यक्रम के सांस्कृतिक पक्ष का उत्तरदायित्व दिया जाता।तबला,हारमोनियम,जलतरंग,जाज़ ड्रम,कांगो,बांगो,पियानो ऐसा कौन सा वाद्य था जिसमे सर को महारत न हासिल हो।लोकगीत,लोकनृत्य से डहरिया सर को विशेष प्रेम था,उन्होने कभी कार्यक्रमों को ग़ैर सांस्कृतिक नहीं होने दिया,। फिल्मी गाने तो नवोदय को कभी छू भी नहीं पाए। उनके सिखाये कितने ही छात्र संभागीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होते रहे। पर हमने कभी सर को घमंड से चलते या खुद का बखान करते नहीं देखा।

अहंकारी तो मैं हो गया था। १५ अगस्त हो या २६ जनवरी,मेरा एक भाषण निश्चित था। बोर्डिंग स्कूल होने के कारण सभी महापुरुषों की पुन्यतिथियाँ,जन्मदिवस,पर्व - त्यौहार हास्टल में ही मनाये जाते थे। जिसमे मंच संचालन की जिम्मेदारी हमेशा मुझपर डाल दी जाती। विज्ञान और गणित को छोड़कर मेरी बाक़ी सभी विषयों में रूचि थी, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा निर्धारित भाषा के कोर्स की पुस्तकें उस समय बहुत हाई फाई हुआ करती थीं। हमारा पुस्तकालय भी शानदार था, इसलिए प्रेमचंद,निराला,बच्चन से परिचय बचपन में ही हो गया था।ऐसे सानिध्य से मेरा साहित्य बोध बाक़ी बच्चों से ज्यादा अच्छा हो गया था, जिसका फायदा मुझे तात्कालिक भाषण, कहानी लेखन,कविता पाठ इत्यादी प्रतियोगिताओं में मिलने लगा(हालांकि मैं दिनों दिन गणित और विज्ञान में फिसड्डी होता चला जा रहा था)। ७वी कक्षा तक आते आते मैं ११वी-१२वी के छात्रों पर भारी पड़ने लगा।अब तो ये हाल हो गया कि यदि किसी प्रतियोगिता का आयोजन हो और मैं अनुपस्थित रहूं तो हिन्दी विभाग मुझे लाने के लिए वरिष्ठ छात्रों को होस्टल भेज देता था। अब मैं डहरिया सर का प्रिय शिष्य हो गया था।

मुझे पता नहीं आजकल किस तरह के बच्चे पैदा हो रहे हैं? आजकल बच्चों को सजा दो तो केस कर दें, या मीडिया वालों को बुला लायें। हमें तो हर तरह की सजा मिली है और हम आजतक जिंदा हैं, अभी कुछ दिन पहले एक बच्चे को मैदान के दस चक्कर लगाने की सजा मिली और वो ६वे चक्कर में ही मर गया।डहरिया सर और स्पोर्ट्स टीचर पासी सर से भी सारा स्कूल खौफ खाता था। हालांकि डहरिया सर ने मुझे कभी सजा नहीं दी।
मुझे याद है कि सर मेरी बड़ी से बड़ी ग़लती पर भी मुझे माफ़ कर देते थे। मुझसे कितने वाद्य यन्त्र टूटे पर उन्होने कभी कुछ नहीं कहा। एक बार तो मैंने उनके बेटे (जो मुझसे एक साल सीनियर था) को ही टेबल मार कर खून निकाल दिया,जब उसने शिकायत की तो सर ने उसी को वापस डांटते हुए कहा कि तेरी ही गलती होगी(वैसे गलती उसी की थी)। ऐसे कितने मौक़े आये, कई तो याद भी नहीं।

१९९७ में स्वतंत्रता की ५०वी सालगिरह के अवसर पर दिल्ली के गालिब ऑडिटोरियम में देशभर के चुने हुए केंद्रीय विद्यालयों द्वारा नाटक प्रस्तुत किये जाने थे। मध्यप्रदेश से दो विद्यालय चुने गए,उज्जैन का केंद्रीय विद्यालय और हमारा नवोदय विद्यालय। हमे एक महीने की ट्रेनिंग देने के लिए मशहूर नाटककार श्री लोकेंद्र त्रिवेदी आये हुए थे। अगले दिन चयन प्रक्रिया चालू होनी थी, पूरे स्कूल में छात्र छात्राएँ तैयारियों में जुटे हुए थे,मैं सो रहा था। अगले दिन सुबह जब हम स्कूल पहुंचे तो सर ने मुझे कहा कि मुझे किसी भी हाल में सेलेक्ट होना ही है। मेरी दिल्ली-विल्ली जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी,क्योंकि कार्यक्रम ऐसे समय पर था कि मेरी रक्षाबंधन की छुट्टियाँ खराब हो जातीं।लंच के बाद सब सभागार की तरफ भागे और मैं होस्टल में सोता रहा, एक घंटे बाद जूनियर छात्रों ने आकर कहा कि आपको शर्मा मैडम(हमारी हिन्दी टीचर) बुला रहीं हैं ,अभी के अभी।मैंने उनसे ये कहलवा दिया कि मैं उन्हें मिला ही नहीं। मैं फिर लंबी तान के सो गया,बाद में दो सीनियर्स आये और मुझे जबरन पकड़ कर ले गए।संगीत कक्ष सभागार में ही था, मंच से एकदम जुडा हुआ।मुझे संगीत कक्ष में ले जाया गया, डहरिया सर सभागार से उठकर अन्दर आये और फिर हमारे बीच कुछ इस तरह का संवाद हुआ:

सर(गुस्से में) - तू कहाँ मर गया था।
मैं- सर मैं सो गया था।
सर(गुस्से में)- बेशर्म, एक लात मारुंगा खींच के, हम लोगों को क्या अपना चपरासी समझ रखा है,तुमसे हम बाद में बाद में निपटेंगे, अभी स्टेज के पीछे जाओ इसके बाद तुम्हारा नंबर है।
मैं(गुस्से से)-सर मैं नहीं जाऊंगा। मुझे नहीं जाना दिल्ली।

थप्पड़ की आवाज

सब सुन्न सपाट(सर बोले जा रहे हैं, मुझे बस एक सीटी सी सुनाई दे रही है)

आवाज़ आनी शुरू हुई-
तू कुछ जानता है ये कितना बड़ा मौका है , जानता है जो बाहर बैठा है वो कौन है, जा के मर साले ,अब मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना, तुम कुछ नहीं कर सकते जिंदगी में।

मेरा दिमाग खराब हो रहा था, सर ने वो थप्पड़ सब के सामने मारा था। ऐसा लग रह था, कि हर देखने वाले की आँख नोच लूँ और डहरिया सर के ऊपर ड्रम पटक दूं।कुछ जलकुकडे मुस्कुरा कर एक दूसरे को देख रहे थे, सहानुभूति भरी आँखें भी मजाक उडाती सी लग रही थी।मैंने अपने आंसूओं को जैसे तैसे रोका और मन में कुछ ठाना।मैं स्टेज पर गया, मैंने स्टेज पर क्या किया मुझे खुद याद नहीं, पर बहुत तालियाँ बज रही थीं। मैं स्टेज से उतरकर होस्टल की तरफ जा रहा था तभी शर्मा मैडम ने दौड़ कर आके मुझे गले लगा लिया और कहा बेटा तुम सिलेक्ट हो गए।मैं वापिस मुड़ा, संगीत कक्ष में पहुँचा और जो मुझ पर हंस रहे थे उनसे कहा" सालों,बहुत दांत-निपोरी सूझ रही थी ना, जाओ सिलेक्ट होके दिखाओ।"उस वक़्त उनके उतरे चेहरे देख कर जो संतुष्टि मिली थी वो मैं बता नहीं सकता।

वो वाकई बहुत बड़ा मौका था, देश भर के लोगों से मिलने का मौका,देशभर की संस्कृति को पास से जानने का मौका,राष्ट्रीय स्तर पर कला के प्रदर्शन का मौका। हमारे विद्यालय ने द्वितीय पुरस्कार हासिल किया।पहला पुरस्कार मिला शिलोंग,मेघालय के नवोदय विद्यालय को। उन से मैंने जाना कि वो लोग कितने अभाव में पढ़ते हैं, उनका विद्यालय बांस से बना था,जिसकी मरम्मत वहाँ के छात्र छात्राएँ खुद करते हैं।
बाद में हम लोगों को गिरीश कर्नाड,अश्विनी मिश्र,कमलेश्वर,वसंत कानिटकर जैसे कथाकारों नाटककारों से मिलने और बात करने का मौका मिला। मुझे ये अवसर डहरिया सर के थप्पड़ की वजह से नसीब हुआ था, पर मैं अभी भी घमंड में चूर था।

वहाँ से लौटकर मैंने संगीत कक्ष में जाना पूरी तरह से बंद कर दिया। डहरिया सर से मैंने फिर कभी ज्यादा बात नहीं की।९ वी में मेरा रुझान खेल की तरफ हो गया, और खेल के मैदान में घुसने के बाद तो संगीत और मंच से नाता टूट ही जाता है। गणित से तो मुझे एलर्जी थी,इसलिए मुझे १०वी कक्षा में कम्पार्टमेंट आ गयी।जैसे तैसे कम्पार्टमेंट पास करने के बाद भी जब मेरे विज्ञान और गणित के कुल अंक ११० नहीं हो पाए तो नियमानुसार मुझे ११वी में कॉमर्स ही मिल सकता था। मुझे विज्ञान चाहिऐ था इसलिए मैंने नवोदय छोडा और एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में जीव विज्ञान लेके पढ़ने लगा। इस स्कूल में आके भाषा का क्षरण हो गया, भाषा पर से पूरी पकड़ चली गयी। अब सब कुछ हिंगलिश हो गया, और संगीत के नाम पर कैरोल्स और इंग्लिश प्रेयर्स ही रह गयीं।

हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं,जब अतीत को देखकर आप मुस्कुराते भी हैं और झेंप भी होती है।अब लगता है कि ऐंठ ही ऐंठ में कितने सुनहरे अवसर खो दिए। नवोदय विद्यालय में पढ़के मैं क्या नहीं सीख सकता था? वैसे प्यार करने वाले शिक्षक अब कहाँ मिलेंगे? जब मिले थे तब कद्र नहीं की। वो क्या था? क्या वो बचपना था? जब आप सोच लेते हैं कि आपने सबकुछ पा लिया उस क्षण से ही आपका पतन प्रारंभ होता है।जब तक आप समझ पाते हैं, तब तक बहुत कुछ खो चुके होते हैं।

खैर,,, अब मैं कोशिश करता हूँ कि मैं घमंडी न बनूँ। एक बार घमंड करके बहुत कुछ खोया है।

अभी दो साल पहले डहरिया सर से मुलाकात हुई। एन सी सी कैम्प में नवोदय की टीम लेकर आये थे। मैंने जाकर उनके पैर छुए तो वो पहचान नहीं पाए, फिर जब उन्होने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा कि "क्या तुम शिशिर उइके के बैच के हो",कितनी ख़ुशी हुई कह नहीं सकता,सोचकर कि चलो मेरा बैच आज भी मेरे नाम से याद रखा जाता है। मैंने उनको सारी बातें कहकर दिल का बोझ हल्का किया।उन्होने भी मुझे स्कूल के हालचाल बताये( जो कि अब खराब हो चुके हैं)। आप लोग भी अपने पुराने शिक्षकों,मित्रों और चाहने वालों से मिलकर दिल का बोझ हल्का करलें। सीखने का कोई मौका न छोडें क्योंकि क्या पता वो मौका दुबारा मिले या न मिले।

6 comments:

Anonymous said...

अच्छा लगा संस्मरण पढ कर। म. प्र. के कौन से नवोदय से हो?
मैने भी अपनी पढाई नवोदय से ही की है। पढ कर काफी यादें ताजा हो गईं
:)

ghughutibasuti said...

आपका लिखा पढ़कर बहुत अच्छा लगा । सच में जीवन में ऐसे सुनहरे अवसर बहुत कम को मिलते हैं और जिन्हें मिलते हैं वे कम ही उनका मूल्य समझकर उनका लाभ उठा पाते हैं ।
घुघूती बासूती

वनमानुष said...

नितिन भाई, मैं जवाहर नवोदय विद्यालय, नरसिंहपुर से हूँ.

घुघूती बासूती जी,आपका धन्यवाद.

आनंद said...

शिशिर जी, आपका संस्‍मरण पढ़कर मुझे भी अपने स्‍कूली दिनों की याद आ गई। मेरे शिक्षकों को भी मुझ पर बहुत विश्‍वास हुआ करता था। डहरिया सर को हमारा भी प्रणाम पहुँचे।

आनंद said...

और हाँ, अपना टिप्‍पणी सिस्‍टम थोड़ा आसान बनाएँ, हमें लिए आसानी होगी।

वनमानुष said...

आनंद भाई, आपके कहने पर टिपण्णी सिस्टम आसान कर दिया है.