३-४ गांधी विरोधी फिल्मे देखकर जब युवा अपने आपको इतिहासविद समझने लगता है, तो वह कुछ इसी तरह के सवाल किया करता है। गांधी को नीचा बताने के लिए सुभाष और भगत के नाम का सहारा लिया जाता है और उनके नामों के सहारे अपना पक्ष सुदृढ़ करने की भरसक कोशिश की जाती है। गांधी को बदनाम करना आसान है, हिन्दुओं को ये बताओ कि गांधी ने पाकिस्तान को इतने रुपये देने के लिए अनशन किया, जनेऊ धारियों को ये बताओ कि गाँधी एक जमादार का काम ख़ुद किया करते थे, और दलित से कहो कि गांधी राजनीति में दलितों के आरक्षण के धुर विरोधी थे। जनता को फुरसत नहीं होती इन सब के पीछे का कारण समझने की। बस एक बार जहाँ एक विराट हस्ती के लिए जन गण मन में घृणा के बीज बो दिए जाएं तो समय समय पर गाँधी के विरोध में अनाप शनाप काल्पनिक बातें लिखकर नफरत के पौधे को सींचते रहो।
दरअसल गांधी एक सॉफ्ट टार्गेट रहे हैं, गोडसे के लिए भी और साईबर युग के युवाओं के लिए भी। गांधी का अपमान करने के लिए कोई खतरा नहीं उठाना पड़ता। ठाकरे के बारे में कोई यदि सच भी बोले तो पिट जाए, और गांधी के बारे में कोई लाख ऊटपटांग गाता फिरे, झूठ फैलाता रहे तो भी वो मजे से खुलेआम घूम सकता है। अपनी जबरन की हेकडी, और व्यर्थ के मद में चूर आजकल का युवा शायद अपने आपको नेताजी सुभाष( जो गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम व्यक्ति थे ),रवींद्रनाथ टैगोर(जिन्होंने गाँधी को महात्मा का दर्जा दिया),भगत सिंह(जिन्होंने बापू को सदैव पितातुल्य आदर दिया) और अन्य सारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी( जिन्होंने सत्य को अपना धर्म और गांधी को अपना मार्गदर्शक जानकर देश को स्वतंत्रता दिलवाई),से भी ज्यादा ज्ञानवान और बुद्धिमान समझते हैं, इसीलिए वे गांधी का अनादर करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।
आसान है, अपने लैपटॉप और कंप्यूटर के सामने बैठकर क्रांतिकारियों की तौहीन करना। वातानुकूलित कमरे में बैठकर स्वतंत्रता संग्राम की खामियां निकालना, कैफे कॉफी डे और बरिस्ता में चुस्कियाँ लेते हुए महान लोगों की खिल्ली उडाना। जिन्होंने पीर पराई और परोपकार का मर्म न समझा हो, उन युवाओं से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है। जिन्हें नैतिक शिक्षा ही ना मिली हो उनकी सोच बीमारू न होगी तो क्या होगी।
खैर जब बीमारी लाइलाज हो जाती है तो दुआ काम आती है, ये दुआ राष्ट्रपिता ने अपने बच्चों के लिए की थी
"सबको सन्मति दे भगवान्"
Feb 23, 2008
कौन हैं महात्मा गाँधी? क्या किया उन्होंने देश के लिए?
Feb 22, 2008
पांच त्रियाचरित्र पीड़ितों की आपबीती और बेटों का ब्लौग!
असफलता से सीखते नहीं, कभी न कभी हम सब, अपनी असफलताओं का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ देते हैं। पार्श्व मे काला परदा लगाकर ख़ुद को गोरा दिखाने की चाहत सब मे होती है। दूसरे को दोषी ठहराना कोलिन स्प्रे की तरह है जिससे हम अपना आईना साफ करने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। हर कोई अपनी असफलता की भडास दूसरे पर निकालता है, दोषारोपण प्रकृति का नियम है; नेता विपक्ष पर, अमीर गरीब पर, औरत मर्द पर, पावन पतित पर और सवर्ण दलित पर। अतीत के पन्ने खुलने पर जब कुछ हादसे और असफलताएँ मुंह बाए खड़े हो जाते हैं तो कुछ लोग दोष डाल देते हैं,,, त्रियाचरित्र पर।यहाँ प्रस्तुत है ऐसे ही ५ लोगों की आपबीती जिन्होंने खुद को त्रियाचरित्र-पीड़ित घोषित रखा है। ये वो लोग हैं जो सोचते हैं कि इंसान की असफलता अथवा इंसान के साथ जो भी क्रूर घटित होता है उसके पीछे एक औरत का हाथ होता है।
प्रथम दृश्य:
खाने की छुट्टी मे, क्लास मे बैठा हुआ एक
धीर गंभीर खिड़की से बाहर
बच्चों को खेलता,देखता हुआ एक।
चींटी धप्प खेलते हुए
कोई उसके पास आयी।
गौर से देख चेहरा उसका
चिडिया सी चाह्चाहायी
"एई, तुम्हारे गाल कितने फट गए हैं,
मम्मी चार्मिस नहीं लगाती क्या"
खिलखिलाहट के बीच
अपमान के घूँट पीता हुआ वो,
प्रतिशोध की ज्वाला लिए
ह्रदय मे, जीता हुआ वो।
झट से खडा हुआ और
उसके बालों में अपना हाथ फेरा,
अंगूठों के नाखूनों को उसके चेहरे के सामने लाया
और हौले से दबाया,
चट्ट की जो आवाज़ हुई अब वो खिलखिलाया
" एई, तुम्हारे सिर में कितने जुएँ हैं,
मम्मी मेडिकर नहीं लगाती क्या. "
प्रकृति का ये क्रूर मजाक
उस कन्या के लिए असहनीय था
वो अगले कालखंड तक रोती रही।
घडियाली अश्रुओं से शिक्षक को प्रभावित किया गया,
नन्ही परी की शिकायत पर
बालक को दानव घोषित किया गया.
बाहर घुटने लगाए वो आज भी सोचता है,
बदतमीजी की सजा उसे ही क्यों.
द्वितीय दृश्य :-
कड़ी धूप में घास छीलते हुए
सारी प्राकृतिक यातनाएं सहर्ष झेलते हुए
जब शरीर का सारा तरल सूख चूका था
तो जाने कितने ही, वालंटियर बना कर
जबरन रक्तदान शिविर में झोंक दिए गए
और ऐसे ही कितने मेहनतकश
सपनो के गले
रैंक परेड के दिन घोंट दिए गए.
कारण से सब अनभिज्ञ हैं, निराश परिणाम से
सोचते हैं पर कुछ सूझता नहीं
कहाँ कमी रह गयी
मेहनत में या चाटुकारिता में।
एक वरिष्ठ ने मुंह खोला
कहा तुम सब की कीमत पर
एक कामायनी,कोमलांगी चुन ली गयी हैं.
वे जिन्हें गाहे बगाहे
मैदान पर देख कर
सब आहें भरा करते थे,
जिनकी बंदूक कभी ना चली
क्योंकि उनसे मैगजीन लोड करते ही नहीं बनी,
पर उनका निशाना अचूक था
जिन्हें सूबेदार मेजर के साथ ठिठोली करते देखा गया
वे अब हमारी अंडर-ओफिसर बनेंगी।
निशाने निशाने का अंतर
जिस दिन समझ जाओगे
उनकी रैंक तुम पा जाओगे.
मिटटी से सम्पर्क के अभाव में
जिनकी युनिफोर्म हमेशा साफ रही
परफ्यूम से महकती वे,
पसीने से बिदकती वे,
उनसे तुम्हारी क्या तुलना है गधो
चलो ये लटके मुंह उठाओ
और जा के उन्हें सेल्यूट करो।
तृतीय दृश्य :-
जब परीक्षा के दिन कक्षा में आकर
कोई एक ही टेबल पर जाकर
ठिठक जाएं
और बड़े प्यार से पूछें
"पेपर कैसा आया"
तो कई मन एक साथ कह उठते हैं
"मास्साब, कभी हमसे भी पूछ लिया करो"
चतुर्थ दृश्य :-
साल भर प्रयोगशाला में खडे होकर
फार्मूलों और रासायनिक सूत्रों में उलझकर
कॉपी में खींची लाल लाल लकीरों को देखकर
भी इतनी खिन्नता नहीं होती
जितनी कि तब,जब
अन्तिम दिवस पर कोई मुस्कुराती हुई आये
आखिरी पृष्ठ पर हस्ताक्षर कराके
बगल में खड़ी हो जाए।
टीपे वो आपकी उत्तर पुस्तिका
और डांट आपको ही पिल जाए
वाइवा में आप को
आधे घंटे खडा रख
अभिक्रियाएं पूछी जाएं
और हलवा बनाने की विधि पूछकर
उनकी पीठ थपथपाई जाए।
अन्तिम दृश्य :-
नोटिस बोर्ड पर लटकी
जीभ चिढाती
जब पुनर्मूल्यांकन की पूरी सूची
"नो चेंज" से सजी हो
और एक विशेषाधिकार प्राप्त विशिष्टा के
२४ अंक बढ़ जाएं तो
परिश्रमियों का आत्मविश्वास
क्यों नहीं डगमगायेगा
साक्षरता का स्वप्न धरा रह जायेगा
भक्त भक्तिनी में भेद हो जहाँ
ऐसे विद्या मंदिरों में
कोई सच्चा उपासक भला क्यों जायेगा?
पाँचों को मेरा सुझाव :-
जो भेद देख आँखें ढांप सकें, वे लोग ही आगे बढ़ते हैं
ठहराव उनके लिए है, जो ऐसी कहानियां गढ़ते हैं।
त्रियाचरित्र है सिर फुटव्वल
सत्य है ये कि,
नारी पुरुष पर भारी
अगर जीना है सुकून से
तो बने रहो आभारी।
( आपस की बात : ये पाँचों कथित पीड़ित मेरे मित्र हैं और इन्होने मुझे "बेटियों का ब्लौग" की तर्ज पर "बेटों का ब्लौग" बनाने का सुझाव दिया है जिसमे ये लोग "त्रियाचरित्र-पीड़ितों" और "पुरुष लिंगभेद" की दुःखभरी दास्ताने पोस्ट कर सकें. पर मैंने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया है क्योंकि मुझे अभी और जीना है. मैं इन लोगों की सोच से इतने भय में जी रहा हूँ कि मैं इनसे दोस्ती कायम रखने के विषय पर भी पुनर्विचार करने जा रहा हूँ. )
लेबल: तुकबंदी
Feb 3, 2008
डहरिया सर का थप्पड़
नवोदय विद्यालय में हमारे एक संगीत शिक्षक हुआ करते थे श्री रवि शंकर डहरिया। लंबे चौड़े ,सांवले, पान के शौकीन,संगीत के विद्वान डहरिया सर। जब ६ वीं कक्षा में हमारा एडमिशन हुआ तो पहले पहल हम लोग डहरिया सर को देख कर कांप जाते थे। नवोदय विद्यालय समिति में भी उनका काफी रुतबा था। नवोदय प्रार्थनाओं को संगीतबद्ध करने की जिम्मेवारी उन्हें ही दी जाती थी। समिति का सारे देश में कहीं भी आयोजन होता, तो डहरिया सर को कार्यक्रम के सांस्कृतिक पक्ष का उत्तरदायित्व दिया जाता।तबला,हारमोनियम,जलतरंग,जाज़ ड्रम,कांगो,बांगो,पियानो ऐसा कौन सा वाद्य था जिसमे सर को महारत न हासिल हो।लोकगीत,लोकनृत्य से डहरिया सर को विशेष प्रेम था,उन्होने कभी कार्यक्रमों को ग़ैर सांस्कृतिक नहीं होने दिया,। फिल्मी गाने तो नवोदय को कभी छू भी नहीं पाए। उनके सिखाये कितने ही छात्र संभागीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होते रहे। पर हमने कभी सर को घमंड से चलते या खुद का बखान करते नहीं देखा।
अहंकारी तो मैं हो गया था। १५ अगस्त हो या २६ जनवरी,मेरा एक भाषण निश्चित था। बोर्डिंग स्कूल होने के कारण सभी महापुरुषों की पुन्यतिथियाँ,जन्मदिवस,पर्व - त्यौहार हास्टल में ही मनाये जाते थे। जिसमे मंच संचालन की जिम्मेदारी हमेशा मुझपर डाल दी जाती। विज्ञान और गणित को छोड़कर मेरी बाक़ी सभी विषयों में रूचि थी, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा निर्धारित भाषा के कोर्स की पुस्तकें उस समय बहुत हाई फाई हुआ करती थीं। हमारा पुस्तकालय भी शानदार था, इसलिए प्रेमचंद,निराला,बच्चन से परिचय बचपन में ही हो गया था।ऐसे सानिध्य से मेरा साहित्य बोध बाक़ी बच्चों से ज्यादा अच्छा हो गया था, जिसका फायदा मुझे तात्कालिक भाषण, कहानी लेखन,कविता पाठ इत्यादी प्रतियोगिताओं में मिलने लगा(हालांकि मैं दिनों दिन गणित और विज्ञान में फिसड्डी होता चला जा रहा था)। ७वी कक्षा तक आते आते मैं ११वी-१२वी के छात्रों पर भारी पड़ने लगा।अब तो ये हाल हो गया कि यदि किसी प्रतियोगिता का आयोजन हो और मैं अनुपस्थित रहूं तो हिन्दी विभाग मुझे लाने के लिए वरिष्ठ छात्रों को होस्टल भेज देता था। अब मैं डहरिया सर का प्रिय शिष्य हो गया था।
मुझे पता नहीं आजकल किस तरह के बच्चे पैदा हो रहे हैं? आजकल बच्चों को सजा दो तो केस कर दें, या मीडिया वालों को बुला लायें। हमें तो हर तरह की सजा मिली है और हम आजतक जिंदा हैं, अभी कुछ दिन पहले एक बच्चे को मैदान के दस चक्कर लगाने की सजा मिली और वो ६वे चक्कर में ही मर गया।डहरिया सर और स्पोर्ट्स टीचर पासी सर से भी सारा स्कूल खौफ खाता था। हालांकि डहरिया सर ने मुझे कभी सजा नहीं दी।
मुझे याद है कि सर मेरी बड़ी से बड़ी ग़लती पर भी मुझे माफ़ कर देते थे। मुझसे कितने वाद्य यन्त्र टूटे पर उन्होने कभी कुछ नहीं कहा। एक बार तो मैंने उनके बेटे (जो मुझसे एक साल सीनियर था) को ही टेबल मार कर खून निकाल दिया,जब उसने शिकायत की तो सर ने उसी को वापस डांटते हुए कहा कि तेरी ही गलती होगी(वैसे गलती उसी की थी)। ऐसे कितने मौक़े आये, कई तो याद भी नहीं।
१९९७ में स्वतंत्रता की ५०वी सालगिरह के अवसर पर दिल्ली के गालिब ऑडिटोरियम में देशभर के चुने हुए केंद्रीय विद्यालयों द्वारा नाटक प्रस्तुत किये जाने थे। मध्यप्रदेश से दो विद्यालय चुने गए,उज्जैन का केंद्रीय विद्यालय और हमारा नवोदय विद्यालय। हमे एक महीने की ट्रेनिंग देने के लिए मशहूर नाटककार श्री लोकेंद्र त्रिवेदी आये हुए थे। अगले दिन चयन प्रक्रिया चालू होनी थी, पूरे स्कूल में छात्र छात्राएँ तैयारियों में जुटे हुए थे,मैं सो रहा था। अगले दिन सुबह जब हम स्कूल पहुंचे तो सर ने मुझे कहा कि मुझे किसी भी हाल में सेलेक्ट होना ही है। मेरी दिल्ली-विल्ली जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी,क्योंकि कार्यक्रम ऐसे समय पर था कि मेरी रक्षाबंधन की छुट्टियाँ खराब हो जातीं।लंच के बाद सब सभागार की तरफ भागे और मैं होस्टल में सोता रहा, एक घंटे बाद जूनियर छात्रों ने आकर कहा कि आपको शर्मा मैडम(हमारी हिन्दी टीचर) बुला रहीं हैं ,अभी के अभी।मैंने उनसे ये कहलवा दिया कि मैं उन्हें मिला ही नहीं। मैं फिर लंबी तान के सो गया,बाद में दो सीनियर्स आये और मुझे जबरन पकड़ कर ले गए।संगीत कक्ष सभागार में ही था, मंच से एकदम जुडा हुआ।मुझे संगीत कक्ष में ले जाया गया, डहरिया सर सभागार से उठकर अन्दर आये और फिर हमारे बीच कुछ इस तरह का संवाद हुआ:
सर(गुस्से में) - तू कहाँ मर गया था।
मैं- सर मैं सो गया था।
सर(गुस्से में)- बेशर्म, एक लात मारुंगा खींच के, हम लोगों को क्या अपना चपरासी समझ रखा है,तुमसे हम बाद में बाद में निपटेंगे, अभी स्टेज के पीछे जाओ इसके बाद तुम्हारा नंबर है।
मैं(गुस्से से)-सर मैं नहीं जाऊंगा। मुझे नहीं जाना दिल्ली।
थप्पड़ की आवाज
सब सुन्न सपाट(सर बोले जा रहे हैं, मुझे बस एक सीटी सी सुनाई दे रही है)
आवाज़ आनी शुरू हुई-
तू कुछ जानता है ये कितना बड़ा मौका है , जानता है जो बाहर बैठा है वो कौन है, जा के मर साले ,अब मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना, तुम कुछ नहीं कर सकते जिंदगी में।
मेरा दिमाग खराब हो रहा था, सर ने वो थप्पड़ सब के सामने मारा था। ऐसा लग रह था, कि हर देखने वाले की आँख नोच लूँ और डहरिया सर के ऊपर ड्रम पटक दूं।कुछ जलकुकडे मुस्कुरा कर एक दूसरे को देख रहे थे, सहानुभूति भरी आँखें भी मजाक उडाती सी लग रही थी।मैंने अपने आंसूओं को जैसे तैसे रोका और मन में कुछ ठाना।मैं स्टेज पर गया, मैंने स्टेज पर क्या किया मुझे खुद याद नहीं, पर बहुत तालियाँ बज रही थीं। मैं स्टेज से उतरकर होस्टल की तरफ जा रहा था तभी शर्मा मैडम ने दौड़ कर आके मुझे गले लगा लिया और कहा बेटा तुम सिलेक्ट हो गए।मैं वापिस मुड़ा, संगीत कक्ष में पहुँचा और जो मुझ पर हंस रहे थे उनसे कहा" सालों,बहुत दांत-निपोरी सूझ रही थी ना, जाओ सिलेक्ट होके दिखाओ।"उस वक़्त उनके उतरे चेहरे देख कर जो संतुष्टि मिली थी वो मैं बता नहीं सकता।
वो वाकई बहुत बड़ा मौका था, देश भर के लोगों से मिलने का मौका,देशभर की संस्कृति को पास से जानने का मौका,राष्ट्रीय स्तर पर कला के प्रदर्शन का मौका। हमारे विद्यालय ने द्वितीय पुरस्कार हासिल किया।पहला पुरस्कार मिला शिलोंग,मेघालय के नवोदय विद्यालय को। उन से मैंने जाना कि वो लोग कितने अभाव में पढ़ते हैं, उनका विद्यालय बांस से बना था,जिसकी मरम्मत वहाँ के छात्र छात्राएँ खुद करते हैं।
बाद में हम लोगों को गिरीश कर्नाड,अश्विनी मिश्र,कमलेश्वर,वसंत कानिटकर जैसे कथाकारों नाटककारों से मिलने और बात करने का मौका मिला। मुझे ये अवसर डहरिया सर के थप्पड़ की वजह से नसीब हुआ था, पर मैं अभी भी घमंड में चूर था।
वहाँ से लौटकर मैंने संगीत कक्ष में जाना पूरी तरह से बंद कर दिया। डहरिया सर से मैंने फिर कभी ज्यादा बात नहीं की।९ वी में मेरा रुझान खेल की तरफ हो गया, और खेल के मैदान में घुसने के बाद तो संगीत और मंच से नाता टूट ही जाता है। गणित से तो मुझे एलर्जी थी,इसलिए मुझे १०वी कक्षा में कम्पार्टमेंट आ गयी।जैसे तैसे कम्पार्टमेंट पास करने के बाद भी जब मेरे विज्ञान और गणित के कुल अंक ११० नहीं हो पाए तो नियमानुसार मुझे ११वी में कॉमर्स ही मिल सकता था। मुझे विज्ञान चाहिऐ था इसलिए मैंने नवोदय छोडा और एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में जीव विज्ञान लेके पढ़ने लगा। इस स्कूल में आके भाषा का क्षरण हो गया, भाषा पर से पूरी पकड़ चली गयी। अब सब कुछ हिंगलिश हो गया, और संगीत के नाम पर कैरोल्स और इंग्लिश प्रेयर्स ही रह गयीं।
हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं,जब अतीत को देखकर आप मुस्कुराते भी हैं और झेंप भी होती है।अब लगता है कि ऐंठ ही ऐंठ में कितने सुनहरे अवसर खो दिए। नवोदय विद्यालय में पढ़के मैं क्या नहीं सीख सकता था? वैसे प्यार करने वाले शिक्षक अब कहाँ मिलेंगे? जब मिले थे तब कद्र नहीं की। वो क्या था? क्या वो बचपना था? जब आप सोच लेते हैं कि आपने सबकुछ पा लिया उस क्षण से ही आपका पतन प्रारंभ होता है।जब तक आप समझ पाते हैं, तब तक बहुत कुछ खो चुके होते हैं।
खैर,,, अब मैं कोशिश करता हूँ कि मैं घमंडी न बनूँ। एक बार घमंड करके बहुत कुछ खोया है।
अभी दो साल पहले डहरिया सर से मुलाकात हुई। एन सी सी कैम्प में नवोदय की टीम लेकर आये थे। मैंने जाकर उनके पैर छुए तो वो पहचान नहीं पाए, फिर जब उन्होने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा कि "क्या तुम शिशिर उइके के बैच के हो",कितनी ख़ुशी हुई कह नहीं सकता,सोचकर कि चलो मेरा बैच आज भी मेरे नाम से याद रखा जाता है। मैंने उनको सारी बातें कहकर दिल का बोझ हल्का किया।उन्होने भी मुझे स्कूल के हालचाल बताये( जो कि अब खराब हो चुके हैं)। आप लोग भी अपने पुराने शिक्षकों,मित्रों और चाहने वालों से मिलकर दिल का बोझ हल्का करलें। सीखने का कोई मौका न छोडें क्योंकि क्या पता वो मौका दुबारा मिले या न मिले।
Feb 2, 2008
राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ।
भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी के बाद अगर सबसे ज्यादा कोई नाम बिका है तो वो है "राम". राम नाम पतंग है। हर राजनीतिक दल की पतंग अलग है। हर राजनीतिक दल अलग तरीके से पेंच लडाता है।
बीजेपी इस पतंगबाजी का सबसे पुराना खिलाडी है, गुजरे वक़्त में उसने माँझे की धार और तेज कर ली है। राम नाम का उपयोग कमाने और डराने में कैसे किया जाता है, ये बीजेपी से ज्यादा बेहतर और कोई राजनीतिक दल नहीं जानता।बाबरी मस्जिद को ढहाए १६ साल हो गए,पर अभी तक राममंदिर नहीं बना।हालांकि बीजेपी नेताओं के घर लक्ष्मी की खासी कृपा हो गयी,बच्चे विदेश पढ़ने चले गए, पूरे देश ने देखा कि बीजेपी को कितना चन्दा मिलता है, पार्टी मीटिंग पांच सितारा होटलों में होने लगी,फीलगुड के विज्ञापन पर अरबों खर्च दिए पर राम मंदिर बनाने को पैसे नहीं जुडे। वैसे गुजरात चुनाव के बाद बीजेपी ने पुराने मुद्दों को भूलकर अपनी एक नयी छवि पेश करने का प्रयास किया है। रामजन्मभूमि को त्यागकर रामसेतु पर ध्यान केन्द्रित किया है।राम मुद्दा भी है, और समाधान भी।बार बार वोट मांगने के लिए मुद्दे का रहना आवश्यक है। राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए अयोध्या का चूल्हा और सेतुसमुद्रम का तवा बहुत जरूरी है।
अब तो बहन जी पीछे नहीं रह गयी हैं। सुना है अमीनाबाद में बहन जी के कार्यकर्ता "सच्ची रामायण" बंटवा रही हैं। मायावती का पेरियार प्रेम देखकर कांग्रेस और बीजेपी अब एक ही मंच पर आ गए हैं, और उन्होने खुलकर मायावती के कृत्य का विरोध करना प्रारंभ कर दिया है। करात को डर लग रहा होगा कि कहीं कांग्रेस और बीजेपी साथ मिलकर तीसरे मोर्चे कि हवा न निकाल दें।बहन जी का विरोध करके कांग्रेस तो एफिडेविट केस से उबरने का प्रयास कर रही है, और बीजेपी इसे सीडी केस के तोड़ की तरह देखने का प्रयास कर रही है। बहन जी गलती भी तो करती हैं, नागनाथ सांपनाथ को एकसाथ ललकारेंगी तो यही तो होगा ना। किसी न किसी का विष तो काम कर ही जाएगा। वैसे अमीनाबाद में "सच्ची रामायण" बांटे जाने से बहन जी की सामाजिक अभियांत्रिकी की असलियत दिख रही है।इससे कहीं उनके प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब में पलीता न लग जाये।
कभी सुना था कि रामराज्य में शेर और बकरी एक ही घाट का पानी पीते थे। इसमे नयी बात कौन सी है,अभी भी पीते हैं,एक ही घाट से पीते हैं पर अलग अलग समय पर।कल कोई कह रहा था कि देशमुख सरकार में रामराज्य है। मैंने पूछा क्यों?तो जवाब मिला कि वहाँ शिवसेना वाले और यूपी,बिहार के लोग एक ही नलके का पानी वापरते हैं. तो आजकल रामराज्य का मतलब ये हो गया है।लोग थोडे में ही खुश रहें यही आज का रामराज्य है।मुम्बई में आयोजित यूपी महोत्सव में भोजपुरी नायिकाओं के ठुमके लगाने से यूपी,बिहार वालों के मन का भय समाप्त हो जाएगा,ऐसा शिवसेना वालों का मानना है। ये शिवसेना की रामराज्य की परिभाषा है।
ये सारी परिभाषाएं महात्मा गाँधी द्वारा कल्पित रामराज्य से कितनी भिन्न हैं।क्या इसमे कहीं भी सबको रोटी,सबको कपडा,सबको मकान वाली सोच है?नहीं है ना। इसमे "सबको" की जगह "हमको" वाला भाव प्रबल है।जनता की प्राथमिक आवश्यकताएं आप मंदिर मस्जिद बनाकर पूरी नहीं कर सकते।
"पेट की भूख को घुटनों से दबा कर बैठा हूँ
ये ना समझो कि सजदे में हूँ।"
राजनीतिक दलों ने सालों तक गांधी और राम को बेचने का काम किया,पर समझने की कोशिश कभी नहीं की।
लिखते लिखते काफी सीरियस बातें लिख गया,ऐसा अक्सर होता नहीं है।मन और माहौल हल्का करने के लिए अब एक चुटकुला सुनाता हूँ:
बचपन के दिन याद आते हैं, जब बाबरी विध्वंस हुआ था तो उसके बाद कारसेवक ट्रेनों में भर भर के मुफ्त यात्राओं का मजा उड़ा रहे थे।हम लोग ट्रेन से नाना नानी के घर जा रहे थे। इलाहाबाद इटारसी पैसेंजर में पिताजी ने एक कारसेवक से पूछ लिया कि ये तुम लोग थैले में क्या ईंटे भरके ला रहे हो ,उसने कहा कि ये ऐसी वैसी ईंटें नहीं,बाबरी मस्जिद की ईंटें हैं।पिताजी ने कौतुहूलवश उससे ईंटें देखने के लिए मांगी,उसके बाद वे जोर से हँसे और खूब देर तक हँसते रहे। वो लाल मिटटी की बनी एकदम ताज़ी ईंटें थीं, उन ईंटों पर अंग्रेजी में "BABRI" लिखा हुआ था, और कटनी स्टेशन पर किसी सिन्धी ने उन कारसेवकों को वो ईंटें २००-२०० रुपये में बेच दी थीं।
Feb 1, 2008
आओ तुम्हे झुग्गी में ले जाऊं !
५०० एकड़ से भी ज्यादा विस्तृत क्षेत्र में फैला धारावी एशिया के सबसे बडे स्लम (झुग्गी बस्ती) के रुप में जाना जाता है आज भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है।दुनिया भर के पर्यटक यहाँ के रहन सहन का अध्ययन करने आते हैं। धारावी में आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या कभी कभी गोआ कार्निवाल और खजुराहो के मंदिर देखने वालों को भी पार कर जाती है।क्या इसका ये मतलब निकाला जाये कि बीते सालों में विदेशियों की अभिरुचियों में बदलाव आये हैं और अब उन्हें सागरतटों और सेक्स से विरक्ति हो चली है? या फिर वे खुद को ये समझाने आते हैं कि "देखो दुनिया कितनी गरीब है,फटेहाल है,ऊपरवाले का शुक्र है कि हम ऐसे नहीं हैं"। मुझे तो ये भी समझ नहीं आ रहा कि इसे महाराष्ट्र पर्यटन मंत्रालय की उपलब्धि समझा जाए या बेशर्मी।सुना है प्राइवेट टूरिज्म कंपनियों के टूरिस्ट पैकेज में स्लम टूर भी शामिल किया जाने लगा है।