Mar 15, 2009

लड़ मरो धर्म के नाम पर, सबको स्वर्ग मिलेगा!

आजकल तो इन्टरनेट पर जहां भी जाओ, जिससे भी बतियाओ थोडी देर सब ठीक ठीक फिर वही साम्प्रदायिक एजेंडा शुरू...कब सुधरोगे बेवकूफों...जब एक दुसरे को काट पीट कर मरना ही है तो लैपटॉप के सामने क्यों बकर कर रहे हो, निकल जाओ हथियार लेके और काट डालो जिस जिससे नफरत है। है दम? या सिर्फ मुंह चलाते ही बनता है? नाक में बैठी मक्खी उडाने की ताकत नही और बातें मरने-मारने की। हाथ पांव में दम नहीं हम किसी से कम नहीं।

अबे चिरकुटों,दुनिया में इतने धर्म हैं, धर्म ने हमेशा लिया है, धर्म ने आजतक क्या दिया है?पैसे तुम कमाते, तिजोरियां धर्म की भरती हैं! ये पैसा जायेगा कहाँ? कभी सोचा है? क्या ईश्वर गरीब है, अनाथ है या बेघर है जो उसके लिए घर बनवाये जाएँ या उसके लिए वेलफेयर ट्रस्ट बनवाये जाएँ। ये जो धर्मालय हैं राजनीति तो यहीं से शुरू होती है, ये कुछ नही बल्कि भ्रष्ट लोगों की अघोषित संपत्ति को जमा करने के बैंक हैं। इसलिए तो सारे डरते हैं और धर्म पर टैक्स नहीं लगाते। वर्ना क्या देश में गरीबी होती?

धर्म है क्या? अपने बुरे कर्मो से मुंह मोड़ने का साधन है। ये धर्म ही है न कि पाप करो और गंगा नहाओ टेक इट ईजी पॉलिसी, सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली वाली कहावत सुनी है ना। धर्म कहता है कि कभी पाप मत करो और अगर कर भी लेते हो तो थोडी सी रिश्वत देकर उससे मुक्त हो जाओ। तुम सबके धर्मालयों में यही रिश्वत जमा हो रही है। यही तुम्हारा धर्म है इसी के पीछे तुम लड़ते रहोगे मरते रहोगे पर जीवन में एक अच्छा काम करने के लिए नही सोचोगे। ब्लैक मनी से धर्म के खजाने भरते रहोगे पर कभी ये नहीं सोचोगे कि एक स्कूल बनवा ले या एक अस्पताल बनवा ले। क्यों? क्योंकि हर धर्म कहता है कि ईश्वर "रिश्वतखोर" है, उसको थोडा सा पैसा दो वो खुश रहेगा और न सिर्फ तुम्हारी पापो की फाइल बंद कर देगा बल्कि तुम्हारी लाइफ आफ्टरलाइफ भी मस्त रखने की गारंटी देगा।

ये सब बातें अभी तुंरत समझ नही आएगी क्योंकि अभी तो आँखों में एक दुसरे के लिए खून उतर आया है, अभी तो मरने मारने का टाइम है, अभी तो कत्ल-ऐ-आम चाहिए, फिर जब रक्त पिपासा शांत होगी तब याद आएगा कि अरे यार हम सब तो आदमखोर हो गए,एक दुसरे को ही खा गए तब अपने अपने ईश्वर को थोडी सी और रिश्वत दे देना वो स्वर्ग के दरवाजे खोल देगा।

धर्म ने जमीन पर जो चीजें बैन कर रखी हैं वो सब स्वर्ग में अधिशेष में तुम जैसों के लिए जमा कर रखा है ,स्वर्ग की मार्केटिंग वैल्यू बनाये रखने के लिए यहाँ इन सांस्कृतिक चीजों पर रोक लगनी ज़रूरी थी। वहां मस्त बैठ के मुर्गा मटन तोड़ना, दारु की बोतलें फोड़ना और हाथ में गजरा बाँध के सब साथ बैठ कर सुंदरियों का डांस देखना और ये सब मिलेगा बिल्कुल मुफ्त, न पैसे उडाने की झंझट और न पुलिस की रेड का डर और जानते हो तुम्हारे साथ कौन बैठे होंगे...वही लोग जिनके खून से तुम्हारे हाथ सने हैं और वो जिनके हाथ तुम्हारे खून से सने हैं, तब समझ आएगा कि धर्म ने सबको कैसा डबल-क्रॉस किया, सबसे पैसा लेके सबको एंट्री पास दे दिए।

8 comments:

अनुनाद सिंह said...

क्या उपरोक्त सभी बातें "कम्युनिज्म" नामक मजहब के लिये भी सत्य हैं?

रज़िया "राज़" said...

धर्म के नाम पे लडने-लडानेवाले तो ख़ुद कभी मरते नहिं हैं। मरते हैं बेचारे निर्दोष लोग। और ईन दरिंदों के बहकावे में आ जाते हैं जाहिल लोग जिनका कोइ भविष्य नहिं। माता-पिता
और समाज का ये कर्तव्य है कि ईन नादानों को सत्य से परिचित करायें। इन भटके हुए नौजवानों को यही समज़ना होगा कि उन्हें भटकानेवालों में से एक भी व्यक्ति ख़ुद मरने को तैयार है?

वो तो सिर्फ एलान करता है भाइयों को आपस मे लडाने का।

अनिल कान्त said...

Divide and rule policy......


मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप की सारी बातें सही हैं। अनुनाद जी भी सहमत हैं सब से। बस उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ये कम्युनिज्म मजहब है या नहीं क्यों कि वह मजहब होता तो वे ये सवाल करते ही नहीं। कम्युनिज्म समाज की एक आदर्श व्यवस्था है। जो आदिम मानव समाज के समानता के मॉडल पर आधारित है। वह कोई धर्म नहीं। कुछ लोग और समूह उसे मानव समाज का आवश्यक चरम मानते हैं। उस में धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है।

संगीता पुरी said...

सही है ... धर्म तो धारण करने योग्‍य व्‍यवहार को कहा जाता था ... जो हर युग और क्षेत्र के अनुकूल होता था ... इसका विभत्‍स रूप आज देखने को मिल रहा है।

Unknown said...

लोगों को गलत कार्य करने के लिए कुछ आड़ लेने के लिए चाहिए और वो काम धर्म के साथ मिलकर आसानी से किया जाता है बस यही है आगे बढ़ने का तरीका ।

THERE IS NO ALTERNATIVE said...

तुम्हारा लेख पढ़ के बस एक ही वाक्य ध्यान आ रहा है....... BRAVO
वैसे मुझे लग रहा है की तुम्हारी फिर किसी गधे से बहस हुई है और उसके बाद तुमने लिखना शुरू किया है।

वनमानुष said...

अनुनाद जी,
माफ़ कीजिये मैं आपका आशय समझा नहीं?

रज़िया जी,
सच कहा आपने.अज्ञानी ही लड़ते हैं..पर शायद उसका एक कारण ज्ञानियों की खामोशी भी है.हर धर्म का बुद्धिजीवी वर्ग अपने धर्म के जाहिलों के विरुद्ध डटकर खड़ा नहीं होता और इस प्रकार उनकी खामोशी धर्म के नाम पर किये गए कुकृत्यों को बढ़ावा देती है.

दिनेश जी,
मेरी अनुपस्थिति में अनुनाद जी की समस्या हल करने के लिए शुक्रिया.

संगीता जी,
मैं आपकी बात से आंशिक रूप से सहमत हूँ.असहमति इस बात पर कि धर्म हर युग और क्षेत्र के लायक इसलिए नही हो सकता क्योंकि यह अनुकूलन का विरोध करता है और जड़ता पर अधिकाधिक बल देता है.सहमत इस बात पर कि धर्म अब अपने वीभत्सतम स्वरुप में है.

नीशू,
सच कहा तुमने.मनुष्य नियमों में लूपहोल खोज ही लेता है,जो उसे भ्रष्टाचार में सहायता करते हैं.विडंबना ये है कि धार्मिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सब अक्सर मौन रहते हैं.

टीना,
थैंक्स....इस सन्दर्भ में तो मनुष्य गधों से भी गया बीता है.क्योकि गधे धर्म,क्षेत्र जाति के आधार पर एक दूसरे से लड़ते तो नहीं.:-)