दोस्तों आज चवन्नी हम से विदा हो गयी। तुम लोग सोचोगे कि ये क्या 'मुंह्बाजी' है पर सच में पता नहीं क्यों मुझे इसके जाने का बहुत दुःख हुआ।
समय बदलता रहता है, हमारे बड़ों ने शायद 'आने'(वही एक आना,दो आना) को इस तरह याद किया होगा और शायद आज से बीस-पच्चीस साल बाद आने वाली पीढ़ी में से कोई 'हजार के नोट' की समाप्ति पर कुछ दुःख व्यक्त करे। पर मेरे बचपन की औकात तो चवन्नी तक ही सीमित थी,इसलिए मैं इसके सम्मान में कुछ शब्द कहूँगा।
मुझे पंजी,दस्सी और बीस पैसे के जाने का कभी उतना दुःख नहीं हुआ जितना इस छोटी सी गोल चवन्नी के विलुप्त होने का, क्योंकि बचपन में ये मेरे छोटी छोटी हथेलियों में आसानी से आ जाती थी और इसे नन्ही सी मुट्ठी में दबा के 'कुल्फी,फुलकी वाले भैयाओं' या 'गटागट-बोरकुट-आमकुट बेचने वाली अम्माओं' के पास जल्दी से भाग के पहुंचा जा सकता था। बाकी पैसे हाथ में गड़ते थे पर चवन्नी तो जैसे हम बच्चों के लिए ही बनी थी। गुल्लक के फूटने के बाद बड़े-छोटे,आड़े-टेढ़े सिक्कों के बीच पड़ी हुई चवन्नियां कितनी क्यूट लगा करती थी।
खेलने के लिए कंचे, खाने के लिए संतरे,नारियल या मिंट की गोलियां,आइस कैन्डी-आइस गोला और चॉकलेट (तब किसमी टॉफी या मेलोडी को ही चॉकलेट बोलकर खाते थे), पढ़ाई के लिए पेंसिल-रबर-कटर सब आता था चवन्नी में। वो भी क्या दिन थे जब जेबखर्च के रूप में हमें चवन्नी मिलती थी और उस चवन्नी से मानो हम दुनिया खरीद लिया करते थे।
सोचा न था कि चवन्नी के जाने से गायब हो जायेंगे चवन्नी छाप,चवन्नी चोर जैसे शब्द, और कंजूसों के लिए फिर नए शब्द गढ़ने की जिम्मेदारी समाज पर होगी. साथ ही ये भी सोचने वाली बात है कि चवन्नी,दस्सी,पंजी जैसे नाम समाज द्वारा प्यार से दिए गए थे,बड़े सिक्कों को क्या कभी हम इतने लाड़ से बुला पाएंगे?
थोडा दुःख तो इस बात का भी है कि धीरे-धीरे बाजार से अठन्नी और एक रुपये का सिक्का भी गायब हो जायेंगे जिन्होंने किराए में ही सही हमारा परिचय 'हमारे साहित्य' से कराया था, चाचा चौधरी,बिल्लू,पिंकी जैसे चरित्रों को हमारे सपनों में जगह दी थी और यही वो सिक्के हैं जो दरअसल हमें टेक्नोलॉजी के द्वार तक ले गए थे तथा हमें 'मारियो' और 'कोंट्रा' के दर्शन कराए थे। मेरा मानना है कि आजकल के बच्चों के सामने हमारी कोई तुलना नहीं और उनकी बढती मांगों पर हमें कोई नाराजगी नहीं होनी चाहिए। पर अच्छा लगता है ये सोचकर कि हम अभावों में खुश रहने वाली पीढ़ी से थे और गर्व होता है कि इसी खूबी के कारण हमारी पीढ़ी के बच्चे 'चिल्लर पार्टी' नाम से जाने गए।
खैर, इस चेंज (चिल्लर) की जरूरत शायद अब हमारी चेंजिंग इकोनोमी को नहीं है। इसलिए चवन्नी को हमारे बचपन की इतनी यादों का हिस्सा बनने के लिए सादर-सप्रेम धन्यवाद और भरे मन से अलविदा।
Jun 30, 2011
चवन्नी : मेरे बचपन का पूँजीवाद
Jun 10, 2011
बाबा-बाबा ब्लैक मनी!
हिन्दुस्तान अनंत काल से बाबाओं की धरती रहा है। आज भी फुटकर में ढूंढो,थोक में मिलेंगे।
बाबा बनने का प्रोसीज़र पहले कुछ और ही था। बड़े लोग भोग विलास की अर्थहीनता भांप कर ज्ञान की खोज में सन्यासी बन जाते थे। आजकल मामला थोडा अलग है। पहले व्यक्ति सन्यासी बनता है,फिर ज्ञान का ढोंग करके संपत्ति का अर्जन करता है,तत्पश्चात जब अथाह संपत्ति का अर्जन करके भी उसे सुख नही मिलता, तब वह वह राजपाट पाने के लिए लार टपकाता है। हिन्दुस्तान आजकल इन्ही बाबाओं की धरती है।
बाबा और दावा,ये भी एक अनोखी लीला है। हर बाबा दावा करता है। जैसा बाबा वैसा दावा। लोग मानते हैं,मूढ़ गंवार हों या पढ़े लिखे,सब मानते हैं।
बाबा चमत्कार से काले को सफ़ेद कर सकते हैं, व्यवसायी धन वर्षा कर रहे हैं। बाबा भीड़ जुटाऊ हैं,नेता नतमस्तक हैं। डॉक्टर इनसे इलाज करवाते हैं,विशेष लौकी चिकित्सा। और अधिकारी? मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक और अधिकारी की ट्रांसफर और प्रमोशन तक।बाबाओं के दावों में देर है पर अंधेर नहीं।
भक्त भी बड़े गजब गजब के हैं,बाबाओं के हर चैनल में बाबाओं की मां बहनें रोती बिलखती दिखाई पड़ती हैं,जाने कौन सा कष्ट लेकर आयीं हैं,जो ख़त्म ही नहीं होता। बाबा चाहे हिरोईन से मालिश करवाए,या साइकिल से कूद हेलीकाप्टर पर चढ़ जाए, चाहे मठ में रासलीला रचाए, बलात्कार में आध्यात्मिक सुख पाए या बच्चों की बलि देकर अपने ईश्वर को रिझाए, बाबा तो भक्तों के लिए बेबी ही रहेगा।
एक बाबा पर आजकल समाचार चैनलों की नज़रे इनायत हो गयी है।हो भी क्यों न? कोई भी करोडपति अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हो जाए तो कोमा में पड़ा आदमी भी चौंक जाएगा, फिर अपनी हिन्दुस्तानी मीडिया तो वैसे ही दिन में २४ बार चौंकती है।
तो मुद्दे की बात ये कि न्यूट्रल बाबा नौटंकी के पूर्वघोषित दिन में सुबह-सकारे हवाई अड्डे पर उतरते हैं और हमारे चार मंत्री उन्हें दाढ़ी वाला ओबामा समझकर उनकी ओर लपकते हैं। विदेशी राष्ट्राध्यक्ष सा सम्मान पाने के बाद बाबा अपनी गोरैया सी छाती क्यूं न फुलाते,थोड़ी बहुत हवा उनके चेले चपाटी ने भी भर दी।अब बाबा छाती फुलाके और पेट पिचका के बैठ गए १८ करोड़ के टेंट में,एयर कंडीशनर की हवा में भाषणबाजी बहुतई सुहाती है बाबा को.अपने शिविरों में योग कम मुंह्बाजी ज्यादा करते हैं।
बाबा तो चलते फिरते कार्पोरेट हाउस ठहरे,जनता से भी डील कर रहे थे और मंत्रियों से भी.ऐसे में जग हंसाई, लट्ठ पुजाई और मुंह सुजाई तो होनी ही थी.
बाबा ने ४ बजे मिलने का टाइम देके इमोशनल अत्याचार टाइप का धोखा सरकार को दिया तो सरकार भी दिलजले आशिक की भूमिका में आ गयी और रामदेव के साथ गलबहियों की चिट्ठी सार्वजनिक कर दी। फिर क्या होना था, हर तरफ योग ही योग पसर गया। बाबा ने हड़ताल आसन किया तो पुलिस ने लट्ठ-आसन और धुंआ-आसन से बाबा के अंट-शंट की कलई खोल के रख दी।
बचपन की बात याद आ गयी। नाना-नानी कहते थे "खेले ला जाथस,कोई बाबा बैरागी के पीछे-पीछे झै जाबे" उस दिन टीवी देख के पता चल गया कि क्यों मना करते थे।बाबा तो लुगाई बनके चम्पत हो गए,जो सचमुच की लुगाई थीं बाबा के फेर में वो पिट गयीं।बाबा का नंबर २( अरे वही फर्जी पासपोर्ट वाला) तो और पहले ही निकल भागा।
वो दिन है और आज का दिन है।इस कालखंड में आँखों ने कुछ अकल्पनीय दृश्य देखे।कभी देखा है ऐसा सत्याग्रही जिसने पुलिस के डर से चोरों की तरह कूदफांद मचाई हो ?औरतों के कपड़ों में भागा हो? सत्याग्रह शब्द पर कालिख पोतकर बाबा जब अगले दिन सुबह सफ़ेद महिला वस्त्रों में दिखा तो पूरे देश का दिमाग सन्न रह गया।
फिर तो भूख और जिल्लत से बाबा ऐसा बौराया कि न्यूट्रल बाबा अचानक खारा और अम्लीय हो गया। "इतालवी मूल की है वो, हिन्दुस्तानी महिला के वस्त्रों में भागते बाबा का दर्द क्या समझेगी,अपने जैसे ११००० की नमूनों की फ़ौज बनाऊंगा,१५ साल से अन्न का एक दाना नही खाया है मैंने तो ३ दिन के अनशन में मेरा क्या बिगड़ेगा" और भी न जाने क्या क्या!
आज भी बाबा की नौटंकियां जारी हैं, एक झूठ पर दुसरे झूठ का लेप चढ़ रहा है। दूध पानी और शहद पी पीकर भी उसका उपवास नहीं टूटा तो ग्लूकोज़ से क्या टूटेगा,१-२ दिन और इंतज़ार कीजिये बाबा बोलेगा उपवास में फलाहार जायज़ है,अच्छा हुआ कि डॉक्टरों ने इसे ग्लूकोज़ चढ़ा दिया वर्ना 3 -४ दिन बाद तो बाबा मैकडोनाल्ड में बैठकर महिला वस्त्रों में २० रूपए का हैप्पी मील खाते हुए पाया जाता।
लब्बो लुआब ये है कि हिंदुस्तान के लोग खुद ही ढोंगियों द्वारा ब्लैकमेल होना चाहते हैं।हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ तो और भी महान है जो इन उच्च राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले निम्न स्तरीय सोच वाले लोगों को महान बनाने में कोई कसर नही छोड़ता। खैर, टीआरपी के लिए जो गंडे तावीज़,भूत प्रेत और तमाम तरह का अंध विश्वास बेचने से परहेज नहीं करता उस मीडिया से और क्या उम्मीद करें।
माना कि भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है परन्तु असंवैधानिक सोच वाले लोगों को यदि हम इसी तरह बढ़ावा देते रहेंगे कि वे संवैधानिक संस्थाओं से खुद को ऊपर स्थापित करने की महत्वाकांक्षा पालने लगें और हम व हमारा मीडिया उनके खुद के चरित्र से आँखें मूंदे रहेंगे तो किस तरह के लीडर पैदा करेंगे हम लोग? जो लोग कहते हैं कि सारे नेता चोर हैं और सबको फांसी चढ़ा दो,वे किस तरह का हिंदुस्तान चाहते हैं उन्हें स्पष्ट करना चाहिए।
चलो मान लो कि मार दिया नेताओं को,कौन राज करेगा फिर?यही ढोंगी साधू ,संपेरे और ज्योतिषी?जो भोलीभाली जनता को झूठ बेचते हैं या 'रंग दे बसंती' चिल्लाने वाली वह पीढ़ी जो एसएम्एस कैम्पेन,मोमबत्ती जलाने बुझाने और कीबोर्ड युद्ध के अलावा न कुछ जानती और न कुछ करती है?
ये आँखें खोलने का समय है,मीडिया को अपना दायित्व समझना चाहिए। उनका जिम्मा समाचार बेचना नही बल्कि सत्य का प्रसार करके लोकतंत्र को मजबूत करना है। संविधान की मूल संरचना से छेड़खानी करके भ्रष्टाचार जैसी विकराल समस्या का हल नहीं निकलेगा बल्कि यह प्रवृत्ति नवीन प्रकार के भ्रष्टाचारियों को जन्म देगी। जिसका एक उदाहरण इस समय हरिद्वार में लेटा हुआ है। साथ ही विपक्ष को शर्मिंदा होते हुए आत्मावलोकन करना चाहिए कि उनके होते हुए जनता को सड़कों पर आना पड़ा।
आम लोगों को समझना चाहिए कि आध्यात्मिक लीडरों के दुमछल्ले बनने की बजाय व्यक्तिगत तौर पर अपनी सांस्कृतिक विरासत को पहचानते हुए तार्किकता और ज्ञान प्राप्ति के जरिये स्वयं में छुपे ब्रह्म को बाहर निकालें। अपने संवैधानिक कर्तव्यों और अधिकारों को जानने का प्रयास करें और उसपर अमल करें। जब आप ऐसा करेंगे तो जानेंगे कि इस देश के संविधान की सबसे ख़ास बात यही है कि इसने सारी जनता को ही इतना शक्ति संपन्न बनाया है कि हमें अलग से कोई लोकपाल बिठाने की कोई आवश्यकता ही नही।
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